पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२१२

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९३ - - - - - -- -- Pa r t-INMEnt + ना कही। भक्तिसुधास्वाद तिलक ! ............. १९३ भक्तिसुधास्वाद तिलक ! मुनि को देखके सब ही ने उनको बरा, तब राजा ने पचासों कन्याएँ मुनि को दान कर दी। (१००) श्रीविदेहनिमिजी। महाराज श्री “निमि" जी विदेह ने, जिनकी राजधानी श्री- मिथिलापुरी थी, यज्ञ करना चाहा, उसी समय उनके पुरोहित श्री १०८ वशिष्ठजी महाराज को श्रीइन्द्रजी ने बुला लिया । जव महामुनीश्वर श्रीवशिष्ठजी इन्द्रलोक से लौट आये, तब देखा कि राजा तो गौतमजी से यज्ञ करा रहे हैं, क्रोध में आके राजा को शाप दिया कि तू विदेह हो जा राजा ने भी वशिष्ठजी को शाप दिया कि आप भी विदेह हो जाइये । यह देख श्रीब्रह्माजी ने वशिष्ठजी को देह (शरीर) दिया, और राजा को यह आशीष कि "तुम्हारा वास सबकी आंखों की पलकों पर रहे ॥" ___ तव से, वहां के राजा "विदेह" कहलाने लगे। महाराज श्रीनिमिजी के पास एक दिन नवो योगेश्वर कृपाकर पहुंचे महाराज ने आदर सत्कार पूजा के उपरान्त, मापसे कई प्रश्न पूछे, और नव योगेश्वरों से एक एक करके सबका उत्तर पाया कि जो विस्तारपूर्वक श्रीमद्भा- गवतके ग्यारहवें स्कन्ध में है । उसको अवश्य ही पढ़ना सुनना चाहिये। श्रीनिमिजी महाराज एक अंश से तो सबकी पलकों पर वसते हैं, और एकरूप से श्रीसाकेत में विराजते हैं ।। (१०१)श्रीभरहाजजी। महामुनि श्री "भरद्वाज" जी का यश श्री "मानसरामचरित्र" में प्रसिद्ध है, कि जिनके ही मनोरम प्रश्न पर श्री “याज्ञवल्क्य" जी ने परम हितकारिणी कथा प्रगट की । आपकी महिमा कहां तक वर्णन की जावे कि जिनके अतिथि श्रीरामप्राणप्रिय "भरत" जी हुये, पुनः स्वयं प्रभु श्रीजनकनन्दिनीजी और लाललाडिले श्रीलपणजी समेत बड़े प्रेम से इनके आश्रम में आए।