पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२२०

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+mmittangaig a t भक्तिसुधास्वाद तिलक । __ अहो । श्रीपरीक्षितजी की क्या प्रशंसा की जावे कि सातवें दिन ज्योंही श्रीशुकदेवजी की वाणी समाप्त हुई, उसी क्षण शरीर को त्याग दिया परमधाम को चले गए। श्रीपरीक्षितजी की कथा लिखी जा चुकी है कि ("जिनके हरि नित उर वसँ)॥ (११६) परमहंस श्रीशुकदेवजी। (११२) टीका । कवित्त । (७३१) गर्भ ते निकसि चले बनही में कीयो बास, ब्यास से पिता को नहिं उत्तरहु दियो है । दशम श्लोक सुनि गुनि मति हरि गई, लई नई गति, पदि भागवत लियो है ।। रूप गुन भरि सद्योजात कैसे कर आए समानृप ढेरि भोज्यो प्रेम रस हियो है । पूछे भक्त भूप ठोर ठौर परे भौर, जाई, गाई उठे जवै मानो रंगझर किया है ॥ १८ ॥ (५३१) वात्तिक तिलक। परमहंस श्रीशुकदेवजी की कथा यहाँ तक तो लिखी जा चुकी है कि शुक का बच्चा श्रीव्यासजी की स्त्री के मुखद्धारा उदर में प्रवेश कर गया। बारह वर्ष उनके उदर में ही श्राप रहे । पुनः देवतों, मुनीश्वर की प्रार्थना से आप गर्भ से निकल के उसी क्षण चल दिये और जाके वन ही में बसे । महर्षि व्यासजी सरीखे पिता के “पुत्र ! पुत्र!!” पुकारने पर स्वयं उत्तर तक न दिया, किन्तु वृक्षों से ही “शुकोऽहं शुकोऽहम्" कहलाके प्रबोध कर दिया। तब श्रीव्यासजी ने एक अनुराग का जाल फेंका अर्थात् भगवद्यश के श्लोक सिखाकर लड़कों को (श्रीअगस्त्यजी के शिष्यों को) वन में आपकी ओर भेजा । किसी दिन एक लड़के को अपूर्व भगवद्यश का एकश्लोक भागवत् के दशमस्कन्ध का गाते सुनके भापकी मति हर गई। भगवत्सेम में आप ऐसे पगे कि उस लड़के से पता पूछकर श्री- व्यासजी के पास आकर नवीन रीति ग्रहण कर (अर्थात् जिन्होंने उत्तर १“डरि"=चलिके, दरक के, कृपा करके। महोबकीय स्तनकालकूट जिघासयापाययदप्यसाध्वी । लेभे गति पाञ्युचिता ततोऽज्य क वा दयालु शरण व्रजेम ।।