पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२१९

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२०० । ArthanamaAMATERIMIRamananari श्रीभक्तमाल सटीक । ये श्रवणादिक नवो नामवाली भक्तियाँ ही जिनकी प्राणाधार जीविका हैं, सो नवो महाभागवत, सब गतिमतिहीन जनों के रक्षक हैं। छप्पय । "नवधा भक्ति निधान ये राममाण प्रिय भक्त दश ॥ श्रवण समीरकुमार, कीरतन कुश लवै निर्भर । शुचि सुमिरन रत भरत, चरण सेवन अङ्गर्दै कर ॥ पूजन शरी, शुभ सुमन्त्रं चन्दन अधिकारी। लखनं दास्य, सुग्रीव सख्यसुख लूटयो भारी ।। अात्म समर्पण गीधपति, कृत अपूर्व करि लिये यश । नवधा भक्ति निधान ये रामप्राणप्रिय भक्त दश ॥" (११५) श्रीपरीक्षितजी। (१११ ) टीका । कवित्त । (७३२ ) श्रवणरसिक कहूँ सुने न परीक्षित से, पानहुँ करत लागी कोटि गुण प्यास है। मुनि मन मांझ क्यों हूँ श्रावत न ध्यावत हूँ वहीं गर्भ मध्य देखि भायो रूपरास है । कही सुकदेवजूसों देवमेरी लीजै जानि, प्रानलागे कथा, नहीं तक्षकको त्रास है। कीजिये परीक्षा उरमानी मतिसानी हो! बानी विरमानी जहां जीवन निरास है ॥ १७॥(५३२) वात्तिक तिलक । राजा परीक्षित के समान भगवत्कथा श्रवणरसिक कहीं सुनने में नहीं आता । श्रवणपुटन से हरिकथा सुधा पान करते हुए भी प्यास कोटि गुनी बढ़ती ही जाती थी। ऐसा क्यों न हो ? देखिये जो प्रभु मुनियों के ध्यान करने से भी उनके मन में किसी प्रकार से नहीं माते, उन्हीं रूपराशि भगवान का गर्भ के मध्य श्राप दर्शन कर पाए हैं। श्रीभागवत सुनते समय श्रीशुकजी से कहा कि “मेरी प्रकृति जान लीजिये कि प्रभु की कथा ही में मेरे प्राण लगे हैं। मुझको तक्षक का कुछ भय नहीं है। चाहे भाप मेरी परीक्षा ले लीजिये,” यह सुन श्रीशुकदेवजी अपने हृदय में यह बात लाए कि राजा सत्य कहते हैं कथा में इनकी मति सनि गई है। १ "टेव" म्बान, प्रकृति, स्वभाव । २ "विरमानी" -ठहर गई, रुकी ।।