पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२२३

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२०४ श्रीभक्तमाल सटीक - मुष्टि मारते ही, उस खेमे में से महा अट्टहास शब्द करके अद्भुत रूप से (अर्थात् भाषा “नर” का और आधा "सिंह" का शरीर धारण कर) प्रकट हो उस दुष्ट को मार डाला | फिर उसकी आँतें निकाल के अपने गले में डाल ली, पर इतने पर भी भापका अपार क्रोध बना ही रहा, शान्त नहीं हुआ, न जाने मन में क्या विचार आ गया। (११४) टीका । कवित्त । (७२९) । डरे शिव अज आदि, देख्यो नहीं क्रोध पेसो, भावत न ढिग कोऊ लछिमी हूँ त्रास है । तब तो पठायो प्रहलाद प्रहलाद महा, अहो भक्ति भाव पग्यो आयो प्रभु पास है ।। गोद में उठाइ लियो, शीश पर हाथ दियो, हियो हुलसायो, कही वाणी विनयास है। भाई जगदया लगि- पखी श्रीनृसिंहजू को, भलो यों छुटावो कखो माया ज्ञान नास है।। ११०॥ (५२६) वार्तिक तिलक। श्रीनरहरि भगवान का वह क्रोध देखके, औरों की तो बात ही क्या है श्रीब्रह्माशिवादिक भी डर गए क्योंकि इन्होंने प्रभु का ऐसा क्रोध कदापि देखा ही न था। कोई समीप नहीं जा सकते थे, वरंच श्रीलक्ष्मी जी भी भय से प्रभु के पास नहीं जा सकी ॥ तब तो श्रीब्रह्मादिक ने श्रीप्रह्लादजी से कहा कि "वत्स ! तुम प्रभु के पास जाके क्रोध की शान्ति करावों" यह सुन आश्चर्य भक्ति भाव के महान प्रह्लाद में पगे हुए श्रीप्रह्लादजी श्रीपभु के पास बेखटके गये ॥ श्रीभक्तवत्सलजी ने प्रसन्न हो दोनों हाथों से उठाके आपको गोद में विठला लिया, और मस्तक प्रामाण कर शीश पर प्रखण्ड अभयपद हस्त फेरा ।। तदनन्तर, श्रीप्रह्लादजी का हृदय अकथनीय आनंद से हुलास को प्राप्त हुआ, और प्रेमराशिसानी वाणी से स्तुति प्रार्थना करने लगे। प्रभु ने श्राशा की कि "वत्स ! कुछ वर माँग ।।" १ "दिगसमीप, पास लगे । २ "लगिपरचो' -मुंहलगू हुए, लट्ट हुए, अरुक्षि परषो, उलझ पड़े । ३ “अरनों हठ पड़े, भड़ गए।