पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२२४

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२०५ MAMRAHMAnt-10-Mmmit-M-MARIANIMHAMRENMAnantainment भक्तिसुधास्वाद तिलक । आप बोले कि प्रभो । मैं वरदान नहीं चाहता हूँ। । परन्तु पुनः श्राज्ञा पाय आपको जगत् के जीवों पर दया आ गई, इससे चरणों में लग के और हठ करके यही वर माँगा कि नाथ । इस आपकी माया ने सब जीवों का ज्ञान हर लिया है इसलिये अपनी माया से जीवों को छुड़ाइये, जिसमें आपका भजन करें। "कादि कृपान कृपा न कहूँ पितु कालकराल विलोकि न भागे। "राम कहाँ?""सवठाउँ हैं "खंभमें?"हाँ"सुनिहाँकनृकेहरिजागे॥ बैरी विदारि भए बिकराल, कहे प्रहलादहि के अनुरागे। भीति प्रतीति बढ़ी, तुलसी, तबते सब पाहन पूजन लागे ॥२॥ (११८) महीवीर श्रीहनुमानजी। (ॐ नमो भगवते हनुमते श्रीरामदूताय) "श्रीहरिवल्लभों” में भी, परमप्रिय श्रीवीरमारुतिजी की कथा कही जा चुकी है, फिर यहाँ "नवधा भक्ति की निष्ठा में श्रापका यशश्रीग्रन्थ- कर्ता ने गाया है, और पुनः आगे, १६ - छप्पय (भूल २०) में भी, "श्रीरघुबीर सहबर” महावीर पवनात्मजजी का सुयश देखिये। उसी प्रसंग में आपके जन्म की कथा भी पढ़के परमानन्द लाभ कीजिये। "सुमिरि पवनसुत पावन नामू । अपने बस करि राखे रामू ॥" और आपकी "श्रवण" निष्ठाभाक्ति इस वार्ता से प्रसिद्ध ही है कि जब श्री अवधेश राघवेन्दजी महाराज निज साकेत धाम को जाने लगे, आपको आज्ञा दी कि "तात | तुम यहीं (श्रीअयोध्याजी में) रहो', तिस पर आपने कहा “प्रभो ! जो आज्ञा, परन्तु यह वरदान मिले कि कदापि किसी काल में श्रीरामायण मुझे सुनानेवालों का अभाव नहीं हो ।" प्रभु बोले कि "अच्छा, ऐसा ही होगा, सदैव मेरी कथा तुम्हारे श्रवण गोचर होती रहेगी, नर नाग गन्धर्व सुर, मेरे यश तुम प्रति गाया ही करेंगे, तथा भाग्यशालिनी अप्सराएँ निरन्तर मेरे चरित्र तुम्हें सुनाती ही रहेंगी ॥" निदान, आप किस रस के प्राचार्य नहीं हैं ? सबही के हैं। - चौपाई।