पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२२८

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m4+- भक्तिसुधास्वाद तिलक। श्रीहरि ने भी बहुत डराया, पर इन्होंने अपनी मति हरिकृपा से स्थिर ही रक्खी, अर्थात् अपना देह आत्मा सब प्रभु को समर्पण कर दिया। सबैया । "कै यह देह सदा सुख सम्पति के यह देह विपत्ति परोज । के यह देह निरोग रहो नित कै यह देहहि गेग चरोज ॥ कै यह देह हुताशन पैठड्ड के यह देह हिमालै गरोजू । "सुन्दर रामहिं सौपिदियोजच,तब यह देइजियोकि मरोज।।" प्रभु इनकी सत्यसन्धता तथा आत्मनिवेदन भक्ति देख, अत्यन्त ही रीझ इनके द्वारपाल बनके सदा द्वार पर ही रहने लगे और अपने मन में हार मान, आपके वश ही हो गए । सो परमहंस- श्रीशुकजी ने श्रीभागवत में अच्छे प्रकार से बखान किया है। सोई श्रीवलि की प्रोति रीति हमने भी गान की है। श्रीवलिजी की कथा "बादश भक्तों" में भी लिखी जा चुकी है और यहाँ “आत्मसमर्पण" में॥ (१२३) प्रसादनिष्ठ भक्त। (११७) छप्पय (७२६) हरिप्रसाद रस स्वाद के भक्त इते परमान ॥शङ्कर, शुकं, सनकादि, कपिर्ल, नारद, हनुमानां । विष्वकसेन, प्रहलाद, बलि, भीषम, जग जाना ॥ अर्जुने, ध्रुवं, अम्ब- रीष, विभीषण, महिमा भारी । अनुरागी अरें, सदा उद्धा, अधिकारी॥ भगवन्त भुक्त अवशिष्ट की कीरति कहत सुजान । हरिप्रसाद रस स्वाद के भक्त इते पर- मान ॥ १५ ॥ (१६६) 'वार्तिक तिलक । श्रीहरि के प्रसाद के रसस्वाद लेनेवाले, और श्रीभगवत् के भोजन किये हुए शेष अमृतान की कीर्ति महिमा कहने में परम सुजान, इतने भक्त प्रमाण हैं-श्रीशङ्करजी, श्रीशुकजी, सनकादिक चारो भाई, श्रीकपिलजी, श्रीनारदजी, श्रीरामानन्य हनुमानजी, श्रीविष्वकसेनजी, श्रीप्रहलादजी, श्रीवलिजी और प्रसिद्ध देवव्रत श्रीभीष्मजी, श्रीअर्जुन-