पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२०५ meterm श्रीभक्तमाल सटीक। श्रीधरजी की चरचा "श्रीहरिवल्लभों” में भी हो आई है और यहाँ "नवधा भक्ति के प्रसंग में॥ (१२२) श्रीबलिजी। (११६) टीका । कवित्त । (७२७) दियो सरबसु, करि अतिअनुराग बलि, पागिगयो हियो प्रहलाद सुधि आई है। गुरु भैरमाचे, नीति कहि समुझावै, बोल उर में न आवै कैती भीति उपजाई है ॥ कह्यो जोई कियो साँचो भाव पन लियो, महो दियो डर हरिहूँ ने, मति न चलाई है। रीझे प्रभु, रहे द्वार, भये बस हरि मानी, श्रीशुक बखानी, प्रीति रीति सोई गाई है ॥ १०२॥ ( ५२७) वात्तिक तिलक । श्रीवलिजी ने अति अनुरागपूर्वक श्रीवामन भगवान को अपना सर्वस्व दे डाला, यद्यपि इनके गुरु शुक्राचार्य ने इनको बहुत भरमाया, और यह भी जता दिया कि देवता के पक्षपाती विष्णु हैं, तथापि इन्होंने न माना, वरंच इनको अपने पितामह श्रीपादजी की प्रेमाभाक्ति की सुधि आ गई । इससे श्रीपलिजी का हृदय प्रभु के अनुराग में पग गया। __ "जाके प्रिय न राम बैदेही । तजिये ताहि कोटि वैरी सम यद्यपि परम सनेही ॥ तज्यो पिता प्रहलाद, विभीषण बन्धु, भरत महतारी। बलि गुरु तजेउ, कन्त ब्रजवनितनि, भयो मुदमंगलकारी ॥ नाते नेह राम के मनियत सुहृद सुसेव्य जहालौं । अंजन कहा ? आँखि जो फूटें, बहुतक कहाँ कहाँलौं ॥ तुलसी, सो सब भाँति परमहित पूज्य प्राणते प्यारो । जाते होय सनेह परमपद, एतो मतो हमारो ॥” (वि०प०) पुनः शुक्राचार्य ने बहुन प्रकार से गजनीति समझाई तथा अनेक भय भी दिखाए परन्तु शुक्र का वचन आपके मन में एक भी न जमा, किन्तु जो कुछ प्रभु से प्रतिज्ञा की थी, सोई बात की । सचे भाव से पर अपना दृढ़ प्रण (पन) गहे ही रहे।" १"भरमा"घुमाये फिरावे, इधर उधर करे, बहकावे, टाल मटोल करे, हेर फेर करे। "चलाई चली, टसको, हटी, डोली।।