पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२४१

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ANDAININNANOHOMबनानाजीनाम-mitreme n dment २२२ श्रीभक्तमाल सटीक । श्रीलोमश मुनिजी का नियम था कि ब्राह्मण का चरणोदक नित्य अवश्य लेते थे। दूसरा जल वा दूसरा ब्राह्मण वहाँ मिला नहीं, मुनि महाराज ने उसी जलसे उसी ब्रह्मवीर्य से उत्पन्न बालक का चरणामृत ले लिया। उसी देशकाल में, प्रभुप्रकट हो बोले कि “तुमने जब ऐसे जल को भी आदर दिया और ऐसे ब्राह्मण के चरणसरोज की भी भक्ति की, तो तुम जल वा विष के निन्दक कब हो सकते हो ? मैं तुमसे अति प्रसन्न हूँ और अशीष देता हूँ कि विप्रप्रसाद से तुम चिरंजीव ही बने रहोगे।" चौपाई। "जे नर विप्ररेणु शिर घरहीं । ते जनु सकल विभव वश करहीं।" रे मन ! अाजकल के एक प्रकार के बुद्धिमानों की बातें न सुन, नहीं तो ब्राह्मणों के चरणरज की यह महिमा तुझे भूल ही जावेगी "हरितोषक व्रत द्विज सेवकाई ॥" चौपाई। "पुण्य एक जग महँ नहिं दुजा । मन क्रम बचन विम पदपूजा ॥" (१३७) श्रीऋचीकजी। भृगुवंशी “श्रीऋचीकजी" ने श्रीगाधिजी से उनकी सुता(श्रीविश्वा- मित्रजी की बहिन) श्री “सत्यवती" जी को माँगा। उन्होंने विचारा कि 'कन्या तो छोटी है और मुनि बूढ़े हैं परन्तु सीधे २ "नहीं" कहने में मुनि के क्रोध का भय है, अतः उन्होंने इनसे कहा कि "यदि आप १००० [एक सहस्र] श्यामकर्ण घोड़े लाइये तो मैं आपको अपनी कन्या हूँ। वह इस बात को असम्भव जानते थे॥ पर, मुनि ने "श्रीवरुणजी" से माँग के सहस्र श्यामकर्ण घोड़े बिना प्रयास उनके सामने प्रस्तुत कर दिये, तब तो उन्हें लड़की देनी ही पड़ी। मुनिजी श्रीमत्यवती सी धर्मपत्नी पा अतीव प्रमन्न हुए॥ __ अपनी सास (श्रीगाधिजी की बी) की तथा अपनी धर्मपत्नी की प्रार्थना से आपने दोनों को क्षीरान मन्त्रित करके दिया कि जिसमें उनकी प्रिया को ब्राह्मण और उनकी सास को क्षत्री प्रसव हो । परन्तु ईश्वर की इच्छा से माँ बेटी ने अपना अपना भाग क्षीरान पलट दिया।