पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२६९

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श्रीमामाल सटीका --+ +- +--- (१) छन्स्य । ५१५) स्वेत दीपमें दाम जे, श्रवण मुनो तिनकी कथा॥ श्रीनारायण (को)* बदन निरन्तर ताही देखें। पलक परे जो वीच कोटि जमजातन लेखें। तिनके दरशन काज गए तह वीणाधारी । श्याम दई कर सैन उलटि अब नहिं अधिकारी नारायण आख्यान दृढ़, तहँ प्रसंग नाहिन तथा । स्वेत दीप मैं दास जे, श्रवण मुनो तिनकी कथा ॥२६॥ (१८८) । वातिक तिलक । "श्वनदीप" में जो श्रीभगवाद के दाम बसने हैं, तिनकी कथा कान लगाके मुनिये। वे दास, श्वेतद्रीपचासी श्रीमन्नारायण के मुखचन्द्रको सक्षा देखा ही काते हैं, और नेत्रों में जो पलक पड़ते हैं उस अन्नर कोदिन यमयातना के संगवा दुःख मानने हैं। उन भगवत् दर्शनानन्द-निष्ठों के दर्शन तथा ज्ञानोपदेश करने के हेतु वीणाधारी श्रीनारदजी गए, तब श्रीमन्नागयजी ने श्रीनारदजी के मन की रुचि जानके हाथ के सैन से निवारण किया कि "आप उलटे पाद फिर इथे. ये हमारी रूप-माधुरी के निष्ठ लोग आपके ज्ञानोपदेश के अधिकारी नहीं हैं !! नारायण की रूपामति प्रमाभक्ति का आख्यान जैमा वर्णित है मोही वहाँ के महों को भली भाँनि हद है। जैमी अन्यत्र के भागवनों की ज्ञान मिश्रा भक्ति में प्रकृति है, वैसा ममंग श्वतद्वीप में नहीं है, वहाँवाले तो केवल शुद्ध माधुर्य रूप के ही प्रेमी उपासक हैं ।। (१७३) श्वेतहीप के भक्त। (१२) टीका नवित्त । श्वेतदीपवासी. सदा रूप के उपासी, गए नारद बिलामी, उपदेश अामा लागी हैं। दई प्रभु सेन जिनि भावो इहि ऐन, हग देखें सद चैन. मति गति अनुगगी है। फिरे दुसपाइ, जाइ कही श्रीवैकुण्ठनाय नीने दायान में नही ।