पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२७१

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In . . . नMe ri+ २५२ श्रीभक्तमाल सटीक। चित्त में चिन्ता नहीं, यह इतने दिनों से प्यासा ही रहता है परन्तु जल नहीं पीता, केवल मेरे ध्यानामृत ही से जीता है, क्योंकि जब यह मेरा प्रसाद पाता है तबही जीम से खानपान का स्वाद लेता है इसकी मति भक्तिरस में ऐसी भीग गई है कि प्रसाद बिना और वस्तु का ग्रहण ही नहीं करता । मेरी इस बात को सत्य मानो, देखो मैं प्रसाद करके जल इसको देता हूँ उसको पियेगा।" भभु ने आप जल पीके प्रसाद उसके आगे रख दिया, तब तुरन्त ही उसने भर चोंच पान कर लिया, प्रेमानन्द का जल भी उसकी आँखों में भर पाया तथा अधरामृत के स्वाद से मति प्रसन्नता से पूर्ण हो गई। श्लोक "यज्ञशिष्शाशिनःसन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषः। ते त्वधं भुञ्जते पापान ये पचन्त्यात्मकारणात् ॥" (गी ० ३। १३) "वैष्णवे भगवद्धको प्रसादे हरिनाम्नि च। अल्पपुण्यवतां राजन विश्वासो नैव जायते ॥ इस आश्चर्य भक्ति को देखके श्रीनारदजी के नेत्रों में किसी प्रकार से निमेष नहीं पड़े उसकी ओर देखते ही गए, फिर चारो ओर फिर करके उसकी प्रदक्षिणा की। और प्रभु से बोले कि “मेरा तो जी चाहता है कि मैं इसकी सेवा किया करूँ॥" (१३१) टीका । कवित्त । (७१२) चलो आगे देखो कोऊ रहे न परेखो, भाव भक्ति करि लेखौ गए दीप, हरि गाइये । आयो एक जन धाई, आरती समय विहाई, खैचि लिये प्राण, फिरि बधू याकी आइये ॥ वही इन. कही, पति देख्यो नहीं मही पसो, हलो याको जीव, तन गिखो, मन भाइये । ऐस पुत्र आदि आए, साँचे हित में दिखाए फेरिके जिवाए, ऋषि गाए चित लाइये ॥१०५॥(५२४) वातिक तिलक। यह सुन श्रीभगवान बोले कि “चलो, अभी, आगे और देखो, कोई परीक्षा रह न जाय, जिसमें उन भक्तों की सब दशा देखक "परेखौ” = जाँच, परचो, परीक्षा । २ "लेखी" - लेखा करो, मानो, गिन्ती में लाओ।