पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२७४

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. rai . . . . . . . भक्तिसुधास्वाद तिलक। एलापत्रस्तथा नागः, ककोटकंधनंजयौ ॥२॥" .. [विष्णुपुराण, अश १, अध्याय २१ ] इनकी चर्चा “श्रीगमतापिनीयोपनिषद्” में भी है ॥ १, एलापत्र ७.कॉटक २, अनन्त शेष ८. तक्षक ३. महापद्म ६.धनंजय ४.अश्वतर १०.नाग ५. कंवल ११.श्वेत ६. वासुकि १२. शंख - प्रिय पाठक ! आप सब धर्मशीलों के गृह गृह सब यज्ञादिकों में पुरोहित लोग अवश्य ही “अष्टकुली नाग” की (और और देवतों के समूह में ) पूजा करते कराते हैं, वे नाग ये ही हैं जिनकी वन्दना प्रार्थना श्रीग्रन्थकार स्वामी श्रीभक्तमाल के इस पूर्वखण्ड के अंत में कर रहे हैं। अंत में इसलिये कि ये "दारपाल" हैं इनकी कृपा विना भीतर प्रवेश नहीं हो सकता, भीतर जानेवाले को प्रथम प्रापही की कृपा की भाव- श्यकता होती है। चित्रमय तथा मन्त्रमय “श्रीयन्त्रराज' का दर्शन अवश्य कीजिये, देखिये कि यन्त्र कोट के बाहर ये दादश उरग कैसे शोभते विराजते हैं। श्रीअयोध्याजी में “यन्त्रराजजी" कई ठिकाने नित्य पूजे जाते हैं श्रीजानकीघाट के स्वामी श्री १०८ पंडित रामवल्लभाशरण महाराजजी श्रीहनुमनिवास के महात्मा श्रीगोमतीदासजी महाराज, श्रीकनक अनुमान से ऐसा निश्चय होता है कि इस षट्पदी (छप्पय १८७ ) "अगर एकरस भजन रति । जरग अष्ट" अपने गुरू स्वामी श्री १०८ अग्रदेव कुत को, श्रीनाभास्वामीजी ने अति । मगल जानकर अत में यहाँ स्थापन किया है जैसे आदि में प्रथम पट्पदी पाँचवे मूल छप्पय की भी है। "पायो जिन रामतिन प्रेमही ते पायो है"।