पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२९३

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२२७४...... २७४ 4 . ..- .. . ..MA AN + + श्रीभक्तमाल सटीक । श्रीलालाचार्यजी ने उनकी प्रतीक्षा की, पर जब वे न पाए और उनकी दुष्ट सम्मति सुनने में आई, तब आपका हृदय शोकाकुल हुआ। जी में यह बात आई कि चलूँ, श्री १०८ गुरुदेव स्वामी से पूछु कि अब किस भाँति मेरा निर्वाह होवे ॥ (१४५) टीका । कवित्त । (६९८) चले श्रीप्राचारज पै बारिजबदन देखि करि साष्टाङ्ग, बात कहि सो जनाइये । “जावो निहशंक, वे प्रसाद को न जान रंके, जान जे प्रभाव, आ बेगि सुखदाइयै ॥” देखे नम भूमि द्वार ऐहैं निरधार जन वैकुंठ निवासी पाँति ढिग द्वै के भाईये । इन्हें अब जान देवो जनि कछू कहो अहो गहो करौ हाँसी जब घर जाँइ खाइये ।। ११२॥ (५१७) वात्तिक तिलक। ये श्रीप्राचार्यजी महाराज (भाष्यकारस्वामी) से प्रार्थना करने को चले, जाके मुखकमल का दर्शन कर सप्रेम, सादर साष्टाङ्ग दण्डवत् किये, और वे सब बाते निवेदन की। आपने आज्ञा की कि “उन अभागे कँगलों को श्रीभगवत्प्रसाद का माहात्म्य विदित नहीं॥ श्लोक "प्रतिमामन्त्रतीर्थेषु भेषजे वैष्णवे गुरौ । याशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति ताहशी॥" तुम निःशंक जाओ निश्चिन्त रहो, क्योंकि "जो दिव्य महानुभाव श्रीप्रसाद का अनुपम प्रभाव जानते हैं, वे ही सुखदाई शीघ्र कृपा करके पायेंगे।"श्रीआचार्य स्वामी ने इतना कहके आकाश की ओर देखके फिर भूमि को देखा। तात्पर्य यह कि वैकुण्ठवासी पार्षदों का ध्यान स्मरण करके श्राकाश की ओर देखके मही में आवाहन किया। फिर कहा कि “जावो, श्रीवैकुण्ठनिवासी भगवजन नभमार्ग से निराधार उतरके तुम्हारे द्वार होके गृह में पायेंगे।" ऐसी आज्ञा सुन शिर पर धारण कर साष्टाङ्ग करके अपने गृह में आए। उसी समय श्रीवैकुण्ठनिवासी जनों की पंक्ति उन विमुखों के निकट होके श्रीलालाचार्यजी के गृह में आई। वे अभक्त लोग देखके १ "र" =श्रीभगवद्भक्तिसपत्ति से हीन, दरिद्री । २ "अहो" --हे भाझ्यो । ॥