पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२९४

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HA. AAMA- AltHumoreauti-4HINANDERIAMAJIRIRAMA भक्तिसुधास्वाद तिलक। २७५ परस्पर कहने लगे कि “हे भाइयो ! अभी इन सबों को जाने दो, कुछ कहो मत, फिर जव भोजन करके अपने घर जाने लगें तब पकड़के अपने समीप बिठाके अच्छे प्रकार हाँसी निन्दा करो ।। (१४६) टीका । कवित्त । (६९७) आए देखि पारपद, गयो गिरि भूमि सदं हद करी कृपा यह, जानि निज जन को । पायो ले प्रसाद स्वाद कहि अहलाद भयो, नयो लयो मोद जान्यो साँचो सन्त पन को॥ बिदा कै पधारे नभ, मग में सिधारे विप्र देखत विचारे द्वार, व्यथा भई मन को । गयो अभिमान आनि मन्दिर मगन भए नए दृग लाज, चीनि बौनि लेत कन को ।। ११३ ॥ (५१६) वात्तिक तिलक । श्रीलालाचार्यजी ने अपने गृह में श्रीभगवत्पार्षदों को आए देख भूमि में गिरके साष्टाङ्ग दण्डवत् किये, और हाथ जोड़ आप कहने लगे कि “आप सबोंने इस दीन को अपना जन जान के इसके ऊपर निसीम कृपा की।" . पार्षदों ने प्रसाद, लेके पाया ( भोजन किया) और उसके स्वाद का बखान कर कर श्रीलालाचार्यजी को बड़ा ही आनन्द दिया, इनने ऐसा यह मोद प्रमोद पाया कि जो अपूर्व था और पहिले कभी भी माप्त न हुआ था। तब भली भाँति जाना कि सन्तों का प्रण कैसा सच्चा होता है। सर्वज्ञ श्रीपार्षदवृन्द विदा होके आकाशमार्ग से चले, ब्राह्मण लोग मग में द्वार पर खड़े खड़े देखते ही रहे । जब जाना कि वे तो प्रा- काशंमार्ग से लौटे चले जा रहे हैं वैकुण्ठ से आए थे, तब उन सबों के मन में बड़ा ही पश्चात्ताप हुआ, अब उनका जात्यभिमान गया और आँखें नीची हुई, नम्र तथा लजित हुए, और श्रीलालाचार्यजी ' के गृह में प्राके प्रेमानन्द में मग्न भी हुए। . अवशिष्ट प्रसाद के कण, जो भूमि में गिरे पड़े थे, उनको चुन चुन के पाने लगे॥ १ "सद"=सज्जन (श्रीलालाचार्यजी)। २"हद" इति ।।