पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३०३

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२५४ श्रीमत remem........ श्रीभक्तमाल सटीक । इस प्रकार श्री १०८ रामानंद की “पद्धति (शुभमार्ग) का प्रताप, भूमिमण्डल में अमृतरूप होके फैल रहा और फैलता जाता है । श्रीरामानन्द स्वामीजी ने श्रीरघुनाथजी की नाई, संसाररूपी समुद्र में, जगत् के जीवों को उतर जाने के हेतु, दूसरा सेतु (पुल) पाँध दिया । तात्पर्य यह है कि जैसा अद्भुत जगत् समुद्र था उसी प्रकार का अद्भुत सेतु भी बनाया। आपके मुख्य शिष्य सोई दृढ़ खंभे हुए और पौत्र शिष्य, ("प्रशिष्य") प्रपौत्रादि शिष्यगण, सोई इस सेतु के सर्वाङ्ग हुए ॥ "बहुतकाल" पर्यन्त शरीर को धारण करके, आपने "प्रणत (शरणागत) जनसमूहों को मंत्रराज श्रीरामतारकरूपी सेतु पर चढ़ा के संसारसागर के पार उतार, श्रीरामधाम में निवास दिया । भवसिन्धुसेतु के खंभेरूपी उन मुख्य शिष्यों के नाम-- (ज्येष्ठ) श्रीअनन्तानन्दजी, श्रीकबीरंजी, श्रीसुखानन्दजी, श्री- सुरसुगनन्दजी, श्रीपद्मावतीजी, श्रीनरहरियानन्दजी श्रीपीपानी, श्रीभावानन्दजी, श्रीरमादास (श्रीरदासजी) श्रीधनौजी, श्रीसेनौजी, श्रीसुरसुरानन्दजी की खी “सुरसरी” जी॥ और भी शिष्य अर्थात् श्रीगालवानन्दजी और प्रशिष्य श्री योगानन्दजी जिन सवोंके नाम भी श्रीनाभास्वामीजी आपही आगे कहेंगे, जो श्रीगमप्रेम प्रकाशयुक्त एक से एक अधिक चढ़ बढ़ के हुए। विश्व के मङ्गल करनेवाले जो श्रीरामानन्दस्वामी तिनकी कृपा का भाधार पाके सब "शानन्द युक्त नामवाले श्रीअनन्तानन्द, सुरसुग- नन्दादि शिष्य, परमानन्दरूपा (दशधा) प्रेमापराभक्ति के स्थान, श्रीरामभक्ताग्रगण्य परमप्रवीण हुए। (श्लो०) "राघवानन्द एतस्य रामानन्दस्ततोऽभवत् । साझेदादशशिष्याः स्युः श्रीरामानन्दसद्गुरोः ॥ १५ ॥ द्वादशादित्यसंकाशास्संसारतिमिरापहाः। श्रीमदनन्तानन्दस्तु सुरसुरानन्दस्तथा ॥ १६ ॥ नरहरियानन्दस्तु योगानन्दस्तथैव च ।