पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३१८

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भक्तिसुधास्वाद तिलक। २९९ तिलका वातिक तिलक। श्रीअनन्तानन्दजी महाराज के चरणसरोज के विमल रज को स्पर्श करके अर्थात् चरणशरण होके, लोकपालों के सदृश जीवों के लोक परलोक में रक्षक श्रीभक्त ये सब हुए-श्रीयोगानन्दजी, श्रीगयशजी, श्रीकर्मचन्दजी श्रीनल्हॅजी, श्रीपयहारी कृष्णदासजी, श्रीसारीरामदास- जी, श्री श्रीरंगजी, ये सब सद्गुणों के तथा भारी महिमा के सीमा हुए। तिन्ह के शिष्य मङ्गलस्वरूप अानन्द के मेष श्रीनरहरिदासजी प्रकट हुए, जिन्होंने, श्रीरघुवर कृपालजी तथा श्रीयदुवरजी, (दोनों) के सुयशगान करके, निर्मल कीर्तिरूपी धन का संचय किया । श्रीमन- न्तानन्दजी ने ये शिष्य में ऐसे किये कि जो हरिभक्तिरूपी समुद्र के बेला (मर्यादा) ही हुए, और पद्मजा अर्थात् श्रीजानकीजी महारानी ने, आपके भजन से प्रसन्नतापूर्वक प्रकट होके श्रीअभय करकमल आपके मस्तक पर रक्ता॥ कहते हैं कि आप एक बरे संभर प्रदेश में पहुँचे वहाँ के राजमाली ने आपके साथ के सन्तों को विहीं के फल लेने से रोक दिया।दुःखित हो सन्तों ने आपसे कहा, दूसरे दिन विही एक भीन पाया गया। राजा ने सब वृत्तान्त सुन के कारण जाना। श्रीस्वामीजी के शरणागत हुआ । इस प्रकार से वह सारा देश भगवद्भक हो गया। तिन्ह के अर्थात्-श्रीअनन्तानन्दजी महाराज के शिष्य, और कोई २ महात्मा ऐसा भी लिखते है कि श्री धीरंगजी के शिष्य । (कवित्त) "रामानन्द स्वामी जू के शिष्य श्रीअनन्तानन्द, शीतल सुचन्दन से, भक्तन अनन्दकर । सन्तन के मानद, परानंद मगन मनमानसी स्वरूप छवि सरसिमराल वर ।। जनक- लली की कृपापात्र चारुशीला अली, रूप में अभिन्न भुंजै रंगभूमि लीला पर । ऊपर समाधि, उर अमित अगाध नैन असुवा बत, उमगत मानो सुधासर ।।" (रसिक भक्तमाल) अथवा, यह भी संभव है कि श्रीअनन्तामन्दजी ने "भक्तिसिन्धुदेला" नामक कोई अन्य ही रचा हो । अथवा, श्रीसीतारामजी का भक्तिरूपी अगाधसिन्धु में विहार करानेवाले बेला अर्थात् वेरा ( नावबेरा ) रूपी ये शिष्य सब हुए। इन महात्माओं से भक्ति की इति है ।।