पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३१७

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HMMMAuranaMantrientertain m ent २९८ श्रीभक्तमाल सटीक । में लिखा ही जा चुका है एक समय एक राजा ने अपने लड़के को शिष्य करने के लिये बहुत प्रार्थना कहला भेजी, उसी क्षण और दो जनों की भी प्रार्थना विनय सुनके, कृपासिन्धुजी एकही समय तीनों ठाम तीन रूप से गए। उस दिन तो किसी ने यह भेद न पाया, पर दूसरे दिन सब वार्ता प्रसिद्ध हो ही तो गई। आपके चरित का पार भला कौन पा सकता है, कि जिनके शिष्य स्वयं प्रभु (भगवान रामानन्द ) ही हुए। छप्पय । रसिक राघवानन्द बसैं काशी प्रस्थाना।। गुरूरूप शिव लये दये रसिकाई ध्याना। काल करालहि हटकि शिष्यकिय रामानन्दा । प्रगटी भक्ति अनादि अवध गोपुर स्वच्छन्दा॥ आचारज को रूप धरि जगत उधारन जतन किय। महिमा महाप्रसाद की प्रगटि रसिक जन सुक्ख दिय॥" ... (श्रीयुगलत्रिया, रसिक भक्तमाल) (१६) श्रीअनन्तानन्दजी। (२५३) छप्पय । (६९०) अनन्तानन्दपद परसिके लोकपाल से ते भए॥ योगानन्दं गयेश करमचन्द अल्हें पैहारों। सारी राम- दार्स श्रीरंग अवधि गुण महिमाभारी॥ तिनके नरहरि उदित मुदित मेहा * मंगलतन । रघुबर यदुबर गाइ बिमल कीरति संच्योधन॥हरिभक्ति सिन्धु बेला रचे पानि पद्मजा सिर दए । अनन्तानन्द पद परसिके लोकपाल से ते भए॥३७॥(१७७)

  • "मेहा" पाठान्तर 'महा' भी है, "मेह" मेघ । "वेला" मर्यादा, वेरा, नावबेरा,

इति। "पद्मजा" श्रीलक्ष्मीजी।