पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३२१

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+ 4 4 - + - + - - - - ३०२ श्रीभक्तमाल सटीक । (१८) पयहारी श्रीकृष्णदासजी। ( १५६ ) टीका । कवित्त । (६८७ ) निर्वेद अवधि कलि कृष्णदास, अन परिहरि पय पानकियो । जाके सिर कर घखो, तासु कर तर नहिं अड्ड्यो। अर्यो पद निर्वान सोक निर्भय करि छ- ड्ड्यो ॥ तेज पुंज बल भजन महामुनि ऊरधरेता। सेवत चरण सरोज राय राना मुविजेता ॥ दाहिमा वंश दिनकर उदय, सन्त कमल हिय सुख दियो। निर्वेद अवधि कलि कृष्णदास, अन परिहरि पय पान कियो ॥३८॥ (१७६) वात्तिक तिलक । कलियुग में तीव्र वैराग्य की सीमा श्रीकृष्णदासजी महाराज अन्न को त्याग के केवल दृध ही पिया करते थे। और योग ज्ञान भक्ति निधान सिद्ध कैसे हुए कि जिस जनके सीस पर करकमल रक्खा, उसके हाथों के नीचे आपने अपना हाथ नहीं रोड़ा (पसाग) अर्थात् उससे कभी कुछ न लिया। और उस जनको संसार के सव शोकों से निर्भय ही कर छोड़ा. तथा अन्त में मोक्षपद दिया। तेज के पुंज, श्रीरामभजन के महाबल से युक्त, महामुनि और उर्ध्वरेता थे। जिनके चरणसगेज की सेवा पृथ्वी के जीतनेवाले अनेक राजा राना किया करते थे। “दांहिवां ब्राह्मणों" के वंश में सूर्य सम उदित होकर कमलरूपी समस्त सन्तों के हृदय को आपने आनन्द दिया प्रफुल्लित किया। १ "निवेद"=वैराग्य, विराग । २ "निर्वान"-मोक्ष, मुक्ति । ३ "ऊरघरेता"=जिसका वीर्य कभी न गिरे, ब्रह्माण्ड पर चला जावे । पाठान्तर "सोव" ( उसको)। ४ "भुविजेता" पृथ्वी को जीतनेवाले। .