पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३२२

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भक्तिसुधास्वाद तिलक। जोकि आपने सर्वदा अन्न को त्यागके दुग्ध ही पान किया, अतएव थापकी पयहारी (पयोहारी) संज्ञा प्रसिद्ध हुई है। जो कि आपने किसी शिष्य से कदापि कुछ न लिया, और अपने शिष्यों को जीवन्मुक्त ही कर दिया, इसी से टीकाकार श्रीप्रियादासजी ने आदि ही में यह पद लिखा है कि---- “गुरू गुरताई की सचाई लै दिखाई जहाँ, गाई श्रीपैहारीजी की ति रंग भरी है।" दो. गुरू तो ऐसा चाहिये, शिख सों कछू न लेय । शिष्यहुँ ऐसा चाहिये, तन मन धन सब देय ॥ १॥ (१५७) टीका । कवित्त । (६८६) जाके शिर कर घस्यो, तातर न ओड़यो हाथ दीनो बड़ो बरं, राजा कुल्हू को जु साखिये । परवत कंदरा में दरशन दीयो पानि दियो भाव साधु हरिसेवा अभिलाखिये ॥ गिरी जो जलेबी थार माँझ ते उठाई बाल, भयो हिये शाल बिन अरपित चाखिये । ले करि खड़ग ताहि मारन उपाइ कियो, जियो संत श्रोट, फिरि मोल करि राखिये ॥ ११६॥ (५१०) वात्तिक तिलक । श्रीपयहारीजी ने जिस शिष्य के माथे पर हाथ रक्खा उसके हाथों के नीचे अपना हाथ कभी न पसारा (न ओड़ा), और बड़ा भारी वर भक्ति मुक्ति सो दिया, उसमें कुल्हू देश का राजा साक्षी है, कि जिसको आपने आके परबत के कन्दरे में दर्शन और राज्य दे, शिष्य कर, भाव भक्ति से उसको पूर्ण कर दिया, कि जिससे श्रीसीतारामजी तथा भक्त- सन्तों की सेवा सदा किया करता था, उससे तृप्त नहीं होता था । वरच सेवामिलाप ही से भरा रहता था। एक समय सन्तों का भण्डारा था, उसी में जलेबियों का थार श्रीसीतारामजी के मन्दिर में जा रहा था, उसी थार में से दो एक जलेबी गिर पड़ीं, सो भक्त राजा के छोटे से बालक ने उठाके मुख में डाल लीं राजा को देखते ही हृदय में अति सन्ताप हुआ कि यह हमारा सुत