पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३३१

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३१२ Ma+ न++ And IMAR 94049++ श्रीभक्तमाल सटीक । एक काला सर्प शीतलता तथा सुगन्धि के लिये श्रा बैठा था। आपने जब, श्रीप्रभु को स्नान चन्दनादिक अर्पण करके फूल लेने के अर्थ, उस पिटारी में हाथ डाला, तव उम साँप ने हाथ में काट लिया, फिर हाथ उसके मुंह के समीप ले जाके श्राप बोले कि "फिर काट ले, तेरा विष क्या मुझे चढ़ थोड़े ही सकता है, क्योंकि मेरे तन मन में श्रीसीता- रामध्यानामृत व्याप्त है। इस प्रकार केवल एक क्या वरन् आनन्दपूर्वक तीन वर कटवाया, परन्तु किंचिन्मात्र भी उस काले सर्प के विष का प्रभाव आपको व्याप्त न हुआ, काहे कि आप तो सदा श्रीरामरूपामृतरस को पान कर मग्न रहते थे। पुनः कालान्तर में जब आपने अपनी इच्छा ही से श्रीरामधाम को गमन करना चाहा, तब समस्त सन्तमण्डली को चुला, श्रीसीताराम मन्दिर में समाज बैठा, सत्कार पूजन कर, मध्य में विराजमान हो, दशमदार से (ब्रह्माण्ड फोर के) प्राण को त्याग, श्रीरामधाम को प्राप्त हुए ॥ इस बात को देख सुनके योगी लोग आश्चर्य मान (इस गति से) यक के रह गए। ऐसे श्रीरामोपासक की कथा सुन सुनके जगत् में जीना योग्य है। (२६) श्रीसुमेरदेवजी। श्रीमुमेरदेवजी, श्रीकोल्हदेवजी स्वामी के पिता, बड़े भक्त थे। आपकी कथा १२१वें कवित्त में लिखी है। कुल्हू राजा की कथा श्रीपयहारीजी की कथा के अन्तर्गत है । (२७) स्वामी श्रीअग्रदेवजी। (१६) छप्पय । (६८०) (श्री) अग्रदास हरिभजन विन, काल वृथा नहि वित्तया ॥ सदाचार ज्यों सन्त प्राप्त जैसे करि आये। सेवा सुमिरण सावधान, चरण राघव चित लाये। प्रसिध वाग सों प्रीति सुहथं कृत करत निरंतर । रसना १ सुहथ' -स्वहस्त, अपने हाथो से।