पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३३०

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भक्तिसुधास्वाद तिलक । यह सुन मानसिंह ने पूछा कि "आप किससे बोले ?" आपने उत्तर दिया कि "प्रगट कहने की बात नहीं है" परन्तु राजा ने बड़ी नम्रतापूर्वकवड़ा हठ किया कि "कृपा करके अवश्य सुनाइये। तव आपने पिताजीके श्रीरामधाम पधारने की सब वार्ता कह सुनाई। __बड़ा आश्चर्य मान, साड़िनी पर मनुष्यों को भेज के राजा ने सुधि मँगवाई ॥ गुजरात से लौटके उन लोगों ने कहा कि "हाँ, सत्य है, उसी दिन उसी क्षण आपका तन छूटा है ।" ___ यह सुन मानसिंह अपनी अप्रतीति का पश्चाताप कर, श्रीकोल्ह- देवजी के समीप गया और उसने साष्टाङ्ग दण्डवत् करके यह विचारा कि ऐसे त्रिकालज्ञ महानुभाव का संग तथा सेवा मुझे पास है, सो मेरा अहोभाग्य और पूर्व सुकृतों का फल, तथा श्रीकरुणाकर प्रभु की विशेष कृपा है ॥ (१६२) टीका । कवित्त । (६८१) ऐसे प्रभु लीन, नहीं काल के अधीन, बात सुनिये नवीन, चाई रामसेवा कीजिये । धरी ही पिटारी फूल माला, हाथ डालो तहाँ ब्याल कर काव्यो, कयो “फेरि काटि लीजिये। ऐसे ही कटायो चार तीनि, हुलसायो हियो, कियो न प्रभाव नेकु सदा रस पीजिये । करिक समाज साधु मध्य यों बिराज, प्रान तजे दशैं दार, योगी थके, सुनि कीजिये ॥ १२२॥(५०७) बात्तिक तिलक । श्रीकोल्हदेवजी इस प्रकार परब्रह्म श्री सीपति प्रभु में लीन रहते थे कि काल आपको अपने अधीन कर ही नहीं सकता था। एक समय की यह लोकोत्तर नवीन बार्ता सुनिये कि प्रभात में आप श्रीसीतारामजी की पूजा सेवा करने लगे, सो, सुगन्धित पुष्प- मालाबों की पिटारी जो पहिले से वहाँ रक्खी थी, उसमें नवद्वार-१ १ २ नेत्र, ३।४ कर्ण, ५। ६ नासिका, ७ मुख, ८ मलद्वार,९ मूत्रद्वार, १० बाँ "दशै द्वार" पहाण्ड, ब्रह्मरंध्र मस्तक ।।