पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३३३

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HAPPAMMAmartanpumentareemaanartha m am arth श्रीभक्तमाल सटीक । (१६४) टीका । कवित्त । (६७९) दरशन काज महाराज मानसिंह श्रायो, बायो बाग माँझ, बैठे द्वार द्वारपाल हैं। झारिकै पतौवा गये वाहिर लैडारि को, देखी भारंभार, रहे बैठि ये रसाल हैं। आये देखि नाभाजू ने साशाङ्ग करी, ठाढ़े, भरी जल भाँखें, चले असुवनि जाल हैं । राजा मग चाहि, हारि, श्रानिकै निहारि नैन, जानी आप, जानी भए दासनि दयाल हैं ॥ १३२ ॥ (५०६) वातिक तिलक। • एक समय श्रीअग्रदेव स्वामी के दर्शन करने के लिये ( भामेर जय- पुर के ) महाराज मानसिंह आए, उस समय आप बाटिका ही की सेवा में थे, इससे राजा अपने समाज सहित (बाटिका ही में ) गया। अतः द्वारपाल लोग बाटिका के द्वार पर बैठा दिये गए, जिसमें इतर मनुष्यों की भीड़ भीतर न आने पावे । श्रीअग्रदेव स्वामीजी उस क्षण वाटिकाके सूखे पत्ते आदि बहार के फेंकने के निमित्त बाहर निकल चुके थे, कूड़े को फेंक के जो देखा तो राजसेवकों की भीड़ भाड़ हो रही है और द्वार रक्षक भी द्वार पर बैठे हैं। अतएव श्रीरामरसिक शिरोमणि स्वामीजी बाहर ही एक प्रामवृक्ष के नीचे बैठके श्रीप्रभु की मानसी सेवा ध्यान में मग्न हो गये। विलम्ब देख श्री ६ नाभाजी आके साष्टांग दण्डवत् कर सन्मुख खड़े हो आप की निस्सीम निरभिमानता सरलता तथा प्रेम-मग्नता देख प्रेम से विह्वल हो गए, नेत्रों से प्रेमाश्रु की धारा चलने लगी। उधर राजा आपके आने का मार्ग देख देख हारके, आप ही आके दोनों महानुभावों की प्रीति की यह विलक्षण दशा अपने नेत्रों से देख, कृतकृत्य हो, उसने यह जाना कि साक्षात् जानशिरोमणि श्रीरामजी ही अस्मदादिक दासों पर दयालु होके "श्रीअग्रदेव" रूप ले प्रगट हुए हैं। __ श्राप "शृङ्गाररस के प्राचार्य "श्रीअप्रअली" के नाम से प्रसिद्ध हैं। १"जानी-जगत् के प्राण श्रीजानशिरोमणिप्रभु।