पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३३६

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-- . . - - ................ भक्तिसुधास्वाद तिलक ।... धर्म, आश्रमधर्म, तथा भागवतधर्मको पालन रक्षण करनेवाले परम सुभट श्रीशङ्कराचार्यजी प्रगट हुए। किस प्रकार से आपने धर्म पालन किया सो सुभटता वर्णन करते हैं कि जितने उत्शृंखल अर्थात् वेदविदित सनातन-धर्म-परम्परा के उठा देनेवाले अज्ञानी अनीश्वरवादी थे, और बुद्धमतावलम्बी तथा कुतर्की जैनमतवादी एवं पाखण्डपराया आदिक जितने विमुख थे, तिन सबको यथायोग्य दण्ड देके उन कुमार्गों से खींच सनातन सत्मार्ग में लाके, (स्थापित करके) चलाया, इस प्रकार की धर्म सुभटता की। _श्रुतिस्मृति-विहित सज्जन-परिगृहीत समीचीन आचरण की सीमा (मर्यादा) ही हुए। - "ईश्वर" के (शङ्करजीक) अंशावतार प्रगट होके, वेदधर्म मर्यादा को आपने मंडन किया कि जो फिर घटे नहीं एक रस बनी रहे। श्रापकी ऐसी सत्कीर्ति सम्पूर्ण विश्व बखान करता है। श्रीशंकराचार्यजी (श्रीशङ्करांशावतार) दक्षिण देश में प्रगट हुए । स्मार्तमत रक्षक दण्डी संन्यासी थे। मण्डनमिश्र नामक एक ब्राह्मण जिनको किसी ने श्रीब्रह्माजी का अंशावतार भी लिखा है, बड़े कर्म- काण्डी मीमांसामतवादी थे मानो कर्म ही को वह ईश्वर मानते थे, उनको आपने (श्रीशंकरस्वामी) ने शास्त्रार्थ में निरुत्तर कर शिष्य (भगवतशरणागत) किया। दो० "विनु सतसंग न हरि कथा, तेहि बिनु मोहन भाग। __मोह गए बिनु राम पद, होय न दृढ़ अनुराग ॥" शिवजी की बाप पर बड़ी कृषा थी। आपने प्रायः सब बड़े बड़े देवतों की स्तुतियाँ लिखी और बहुत देवतों के मन्दिर भी बनवाए । स्मात आपको अपना आचार्य, और अदैतवादी अपना मानते हैं, निर्गुण- मतावलम्बी अपना तथा शैव और शाक्क भी अपना अपना श्राचार्य आपको पुकारते हैं । "शिव विष्णुभक्ति", "भज गोविन्द, विश्वे- शपादाम्बुजदीर्घनौका” इत्यादि उपदेश प्रापही के हैं, "ब्रह्मसूत्रभाष्य,” तथा "नृसिंहतापनी भाष्य, आदि आपके प्रख्यात ही हैं। आपके मुख्य शिष्य चार प्रसिद्ध हैं--