पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३४०

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Mundnes HIHIHANIMI-In 1-MHomeHIRamanandMMHRAM भक्तिसुधास्वाद तिलक । ३२१ सेवड़ों ने विचारा कि “जो अब हम इस नौका में नहीं चढ़ते तो भी तो राजा हम सबको मार ही डालेगा," इससे वे सब सेवड़े राजा के भय से चढ़े। वह नाव तो देखनेमात्र की थी ही, भूमि में गिरके सब सेबड़े टुकड़े टुकड़े होके मर गए। फिर तो न वह नाव ही रही, न वह जल ही रह गया। ____तब तो यह सब कौतुक देख राजा अत्यन्त प्रसन्न हो, धन्यवाद- पूर्वक श्रीशंकरस्वामी के चरणों पर गिरा, तथा भक्तिभाव में भर गया। और आपने जो उपदेश दिया राजा ने सो ही किया, अर्थात् उसने वेदविहित भागवतधर्म को अपनी प्रजासमेत प्रहण किया। इस प्रकार से श्रीशंकराचार्यजी ने प्रथम तो श्रीभगवद्भक्ति तथा भागवतधर्म ही का भली भाँति प्रचार किया था, परन्तु पीछे काला- नुवर्ती कौतुकी प्रभु की प्रेरणा से, अपने मत में स्वयं उन्होंने कुछ माया- वाद डाल दिया कि केवल निर्विशेष अद्वितीय ब्रह्म ही सत्य है और सब माया है, अर्थात् ईश्वर को भी विद्यामायायुक्त कहा और ज्ञान, भक्ति, वेद, मन्त्र इत्यादिक मोक्षसाधनों को भी केवल विद्यामायामय बताया, तथा जीव और संसार को अविद्यामायामय, और दोनों मायाओं को तीनों काखों में मिथ्या कहा। अतः कितने जीव भगवत् से और भागवतधर्म से विमुख हो गए और होते जाते भी हैं । यथा- दोहा-"ब्रह्मज्ञान बिनु नारि नर, कहैं न दूसरि वात। कौड़ी लागी लोभवश, करहिं विष गुरु घात ॥" और जो धीर गम्भीर (श्री श्रीधर स्वामी आदि सरीखे) सन्त हैं सो तो श्रीशंकराचार्यजी की प्रथम भक्ति मति रीति को यथार्थ जान- के अपने मन को भीति ही में सानके नित्य नवीन भगवतरूप गुण लीला में लौलीन हुए हैं तथा होते हैं। इन कथाओं को किसी किसी ने प्रकारान्तर से भी लिखा है, परन्तु • यहाँ तो श्रीप्रियादासजी के अक्षरों के अनुसार ही लिखा गया। श्रीशंकराचार्यजीकृत "मोहमुद्गर के १६ (सोलह) श्लोकों में से,

ये पाँच श्लोक--