पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३३९

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३२० श्रीभक्तमाल सटीक । त्याग के अपने शरीर को ग्रहण कर लिया। शिष्य साष्टांग प्रणाम कर कहने लगे कि "हे स्वामी । जो पन किया था सो आपने पूरा किया," श्राप बोले “तुमने भी मेरी आज्ञा भले पाली ॥" श्रीशङ्कराचार्यजी ने उस काम कौतुक वाद को, इस ढंग से समझ के, कुवादी सेवड़ों को बाद में परास्त किया। . जब सेवरों ने जाना कि “अब तो हम सब हार गए, राजा शङ्करा. चार्यजी ही का मत ग्रहण करेगा, अतः राजा को शङ्कराचार्य सहित माया से मार डालें तब, कुमत करके, निज शिष्यों सहित मायावी सेवड़ों का गुरु राजा तथा श्रीशङ्कराचार्यजी को लेके ऊँचे छत पर जा बैठा और अपने मायाफन्द का प्रयोग किया कि जिससे चारों ओर से प्रलयकालीन समुद्रसरीखा जल छत के समीप तक चढ़ पाया और उसी जल में छत के समीप ही मायाकी एक बहुत बड़ी नौका भी आ पहुँची, तब सेवड़ों के उस गुरु ने राजा से कहा कि “शीघ्र इस नाव पर चढ़ो, नहीं तो डूब जाओगे।" राजा ने भय से चढ़ना चाहा, परन्तु श्रीशङ्करा- चार्यजी ने इस मायाकौतुक को अपने मन में मिथ्या ही धारण किया (झूठ समझा ॥) (१६८) टीका । कवित्त । (६७५) आचारज कही यो चढ़ाओ ईनि सेवरानि, राजा ने चढ़ाए, गिरे ट्रक उड़ि गए हैं। तब तो प्रसन्न नृप, पाँव परलो, भाव भयो, कह्यो जोई कलो धर्म भागवत लए हैं। भक्ति ही प्रचार, पाछे मायावाद डारि दीनों, कीनों प्रभु कह्यो, किते विमुख हु भए हैं । ऐसे सो गँभीर सन्त धीर वह रीति जाने, प्रीति ही में साने हरिरूप गुन नए हैं ॥ १२६ ॥ (५०३) बातिक तिलक। उस मायाजाल के जल में वह मायारूपी मिथ्या नौका देखके राजा चढ़ा चाहता ही था तभी श्रीशङ्कराचार्यजी ने राजा को चढ़ने से रोक के कहा कि “पहिले इन सब सेवड़ों को चढ़ाओ" । राजा ने सेवड़ाओं से कहा कि "हाँ श्रागे आप सब ही चढ़िये" यह सुन