पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३४२

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ng भक्तिसुधास्वाद तिलक । निवही कि जैसे त्रेता ® में श्रीनृसिंहजी के दास श्रीप्रह्लादजी की (प्रतिज्ञा निवही थी)। देखिये, वालअवस्था ही की प्रीतिदशा में जिनके हाथों से श्रीविठ्ठल भगवान ने दूध पिया । और मरी हुई गाय को जिलाके असुरों ( यमन म्लेच्छों) को परीक्षा परचौ दिया। तथा उस यमनराज की दी हुई सेज (पलंग) को जो आपने नदी के जल में डाल दिया था, सो उस जल में से वैसे ही अनेक पलंग निकालके दिखा दिये। और जब आपने मन की दुचिताई के भय से पनही कमर में बाँध ली थी, उसको देखके पुजारी पंडों ने आपका तिरस्कार किया, इससे श्राप मन्दिर के पीछे जाके भजन गान करने लगे, तब "श्रीपण्डरीनाथ जी के देवालय का द्वार उलटके आप ही की ओर हो गया जिसको देखके अत्यन्त सकुचाके सब पूजक श्रोती लोगों ने श्रीनामदेवजी से विनय कर अपना अपराध क्षमा कराया। पुनः भक्तवत्सल श्रीपंडरनाथजी को आपने अपनी प्रेमपुंजभक्ति के बल से, अनुग (सेवक) सरीखा कर लिया, यहाँ तक कि प्रभु ने स्वयं अपने करकमलों से आपका छप्पर छाया ॥ दो. "जिन जिन भक्तन प्रीति की, ताके बस भए पनि । सेन होय नृप टहल किय, नामा छाई छानि ॥" । (श्रीध्रुवदासजी) श्रीशिवसम्प्रदाय ( विष्णुस्वामीसंप्रदाय) में श्रीलक्ष्मणभट्टजी से पौर श्रीवल्लभाचार्यजी से भाप पहिले हुए, आपके गुरु श्रीज्ञानदेवजी, शिष्य त्रिलोचनदेव, और आपके नाना श्रीवामदेवजी थे। श्राप सुकवि थे, श्रापकी कविता उदासियों के “ग्रन्थसाहिब में भी संगृहीत है। यह बात तो प्रसिद्ध ही है कि आप श्रीकवीरजी के समकालीन थे।

  • श्रीनृसिंहावतार सत्ययुग का कहा जाता है, और श्रीनाभास्वामीजी ने त्रेता लिखा,

इसका तात्पर्य यह है कि उक्त अवतार कृतयुग प्रेता के संध्या में हुया, अतएव त्रेता ही कहा, हिरण्यकशिपु ने वर ही तो मांग लिया था कि 'न, सतयुग में मरे न त्रेता में।