पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३४३

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श्रीभक्तमाल सटीक। कलिसंवत्सर । विक्रमीय संवत् ईसवी सन् ४५८६ १ ५४५६ १४४८ श्रीराधाकृष्णजी ( काशीनागरीप्रचारिणी सभा) तथा श्रीतप- स्वीराम सीतारामीयजी ने भी ऐसा ही लिखा है, और उस समय भारत- वर्ष में “बादशाह सिकन्दर लोदी" था। (१७०) टीका । कवित्त । (६७३) छीपा वामदेव हरिदेवजू को भक्त बढ़ो, ताकी एक बेटी पतिहीन भई जानिये । द्वादश वरष माँझ भयो तन, कही पिता सेवा सावधान मन नीके करि आनिये ॥ तेरे जे मनोरथ हैं पूरन करन एई जो पै दत्त- वित्तकै मेरी बात मानिये । करत टहल प्रभु बगि ही प्रसन्न भए, कीनी काम वासना सु पेखि जन मानिये ॥ १२७॥ (५०२) वातिक तिलक । पण्डरपुर (दक्षिण) में, जाति के छीपा, श्रीवामदेवजी श्रीहरिजी के परम भक्त हुए, तिनकी एक कन्या थोड़ी ही अवस्था में विधवा हो गई । जब उसकी अवस्था बारह वर्ष की हुई, तब उसके पिता श्रीवाम- देवजी (श्रीनामदेवजी के नाना)ने कहा कि "श्रीपण्डुरनाथ (श्री- विट्ठलदेवजी की जो मेरे गृह में विराजमान हैं, इनकी सेवा पूजा सावधान मन लगाके भली भाँति से किया कर, तेरे जितने मनोरथ हैं उन सबके पूरे करनेहारे ये ही प्रभु हैं, परन्तु जो मेरी बात में विश्वास करके चित्त लगाके प्रेम सहित सेवा करेगी तो।" इस प्रकार पिता का उपदेश सुन, वह वड़भागिन सप्रेम सेवा-टहल दिन रात करने लगी। उस पर शीघ्र ही प्रसन्न हो प्रियतम प्रभु ने अति अनूप किशोररूप से साक्षात् दर्शन दिया, जिन्हें देख उसको काम- वासना हुई । सर्वकामपूरक प्रभु ने उसकी कामना पूर्ण की, यहाँ तक कि वह गर्भवती हो गई। इस कलिकाल में भी ऐसी अनोखी प्रकट कृपा प्रभु की हुई, इसको विश्वासपूर्वक मानिये ॥

  • किसी ने सवत् १५०० ही लिखा है।

"छीपा" छीट वस्त्र छापनेवाले (छीपा दरजी नहीं )।