पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४०४

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4444444. भक्तिसुधास्वाद तिलक । ( २३१) टीका ! कवित्त । (६१२) बोल्यो घरदासी सों, “तू रहै याकी दासी होइ, देखियो उदासी देत ऐसो नहीं पावनौ । खाय सो खवावो, सुख पावो नित नित किय, जिय जग माहिं जौली मिलि गुन गावनो" ॥आवत अनेक साधु, भावत टहल हिये, लिये चाव दाव पाँव, सवान लड़ावनौ ! ऐसे ही करत, मास तेरह वितीत भए, गए उठि आपु, नेकु बात को चलावनी ॥ १८३ ॥ (४४६) वात्तिक तिलक । स्त्री से कहा कि “तू इसकी दासी सी रहियो, देखना, उदास होके खाने को देने से यह चला जावेगा और फिर ऐसा सेवक मिलने का नहीं, जितना खाय सो खिलाना, सुखपूर्वक लित्यही इसके लिये रोटी करना । जब तक हम तुम जिये, तव तक तीनों मिल जुलके साधुसेवा और भगवत् का भजन करें" अस्तु, इस भाँति इनके. भोजन के विषय में विशेष करके उसे समझा बुझा दिया ।। ___अव अन्तर्यामी ने सन्तों की टहल प्रारम्भ की, साधु तो यहाँ पहिले ही से अनेक आया करते थे, पर अब और भी अधिक प्राने खगे, क्योंकि अन्तर्यामी उनकी बड़ी चाव भाव से टहल सेवा करते, चरण चापते, "अन्तर्यामी” अन्तर्यामी ही निकले, जिसकी जो रुचि होती वैसाही करते, जो जहाँ पुकारते उनके पास वहीं पहुँच जाते, इसी रीति से सब सन्तों को लाड़ लड़ाया करते थे। निदान चारों खूट में श्रीत्रिलोचनजी की साधुसेवा की धूम मच गई। इसी भाँति एक वर्ष से एक महीना अधिक बीतते ही. तनक सी बात चलाते ही उसी क्षण “अन्तर्यामी" अन्तर्धान ही हो गए। (२३२) टीका । कवित्त । (६११) एक दिन गई ही परोसिन के, भक्तवधू, पूछि लई वात "अहो! काहे की मलीन है ? | वोली मुसुकॉय, “वे टहलुवा लिवाय ल्याये, क्योंहू न अघाय खोट, पीसि तन छीन है ॥ काहू सौं न कहाँ, यह गहौं मन माँझ एरी, तेरी सौं सुनैगो जो पै जान रहै भान है। १ "व" =मेरे पति । २ “भीन" -भिनसारे, प्रभात, सवेरे ॥