पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४०३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

+ heart +M ovie + श्रीभक्तमालसटीक। श्रीत्रिलोचनजी ने घर से निकलते ही आप को देख माँ बाप पर भादि का प्रश्न किया। आपने उत्तर दिया कि “सच कहता हूँ मेरे बाप माँ कोई नहीं हैं। जो मुझे रखे, और मेरा उसका स्वभाव मिल जाय, तो मैं सेवा टहल भले प्रकार करता हूँ." श्रीत्रिलोचनजी ने पूछा कि "भाप के स्वभाव में अनीमल वार्ता कौन सी है ? सो भी तो वता दीजिये।" टहलूजी ने उत्तर दिया कि "मैं पाँच सात सेर खाता हूँ,इसीसे जिसके यहाँ रहता हूँ सो रिसाय उठता है, ग्लानि मानने लगता है, तब में चलही देता हूँ॥" (२३०) टीका ! कवित्त । (६१३) ., "चारि हू वरन की जु रीति सब मेरे हाथ, साथ हू न चाहौं, करों नीके मन लाइक । भक्तन की सेवा सो तौ करत जनम गयो, नयो कछु नाहि, डारे बरस विताइकै॥"अंत्रजामी" नाम मेरो, चेरो भयो तेरो हों तो," बोल्यो भक्त “भाव, खायौनिशंक अघाइके" । कामरी पन्हैयाँ सब नई करि दई, और मीडि के न्हवायो, तन मैल को छुटाइकै ॥१८२॥ (१७७) ___ वात्तिक तिलक । "चारों वर्षों की रीति मैं संच जानता हूँ, मेरे हाथों में है, और अकेला ही सब टहल कर लेता हूँ, मन लगाकै भली भाँति सेवा किया करता.हूँ, विशेष करके हरिभक्तों संतों की सेवा तो करते बरसों क्या वरन् सारा जन्म वीता, कुछ नई बात नहीं, मेरा नाम “अन्तर्यामी” है, मैं भापका चाकर हुभा ॥" दो “चार वरन की चातुरी, सरैन मेरो काम ॥ भक्त सेव जो जानई, तौ रहु मेरे धाम॥ तब श्रीत्रिलोचनजी ने हर्षित होकर कहा कि "जितना चाहो उतना अघाके खाइयो, कुछ शंका मत करो ॥"

  • इनको अच्छी प्रकार से अंग माँज माँज के स्नान कराकर, पगरखी

(पनही) तथा कमली आदि नई मँगवा दी। तब सन्तों की टहल सोपी॥