पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४०६

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३८७ PriwalMAHu . . ..." IMMMMMMMM...HMA inna rl भक्तिसुधास्वाद तिलक । अभागिन । तूने क्यों उसकी वार्ता चलाई ? वह साधुसेवा में अति अनुरागी था। अब उसको कहाँ से कैसे लाऊँ ?" भक्तराज त्रिलोचनजी को आकाशवाणी हुई कि “तुम प्रसाद पाभो जलपान को उपवास मत करो, यह अन्तर्यामी' नामक तुम्हारा टहलू मैं ही था, और मैं सदा तुम्हारे ही पास हूँ भी, यदि अब भी तुम्हारी इच्छा हो, तो वैसी ही सेवकाई सन्तों की मुझे स्वीकार है, मैं तो सदैव भक्तों ही के अधीन हूँ, कहो तो फिर पहुँच ?" (२३४) टीका । कवित्त । (६०९) "कोने हरिदास, मैं तौ दासहू न भयौं नेकु, बड़े उपहाँस मुख जग में दिखाइयें । कहैं जन “भक्त" कहा भक्ति हम करी कहाँ ? अहो ! अज्ञताई गति मन मैं न आइयै ॥ उनकी तो बात बनि आवै सब उनहीं सौं गुन ही कौं लेत मेरे भौगुन छिपाइौं । आए घर माँझ तऊँ मूढ़ मैं न जानि सक्यौं ! आवे अब क्योंहूँ धाय पाँय लपटाइय" ॥ १८६ ॥ (४४३) वात्तिक तिलक । इस प्रकार श्रीप्रभु की आकाशवाणी सुन त्रिलोचनजी ग्लानि से विलाप करने लगे कि- "मैं कैसा दास हूँ? हा ! मुझसे दासत्व भी कुछ न बना ! स्वयं प्रभु दास होके रहे, यह भारी उपहास की बात हो गई, मैं संसार में क्या मुँह दिखाऊँ ! लोग मुझे भक्त कहते हैं, धिकार मेरी भक्ति को ! ऐसी अज्ञा- नता मेरी सो प्रभु के मन में भी न आई॥" “सरिकी बात तोसकारही से बन पाती है, दूसरे की सामर्थ्य कहाँ ? शील, स्वभाव, कृपा की बलि जाऊँ, आप तो गुण ही को ग्रहण करते हैं, शरणागत के दोपों को छिपाते हैं । घर में श्राप कृपा करके इतने दिनों विराजमान रहे, तब भी मुझ मूढ़ ने न जाना । अब कैसे ह पाऊँ तो दौड़कर चरणकमलों में लपट जाऊँ ।” इसी प्रकार श्रीत्रिलोचनजी ने प्रेम पश्चात्ताप कर, फिर श्रीप्रभु की कृपालुता स्वभाव स्मरणपूर्वक भजन और सन्तसेवा में जीवन को व्यतीत किया।