पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४०७

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श्रीभक्तमाल सटीक । + + + + + + + +-+-+ - +- . 4 4 "तुमकह, भरत । कलंक यह, हम सवकहँ उपदेश ॥" भक्त भक्ति भगवन्त की, जय ! जय !! जय !!! श्रीवल्लभाचार्यजी। (२३५) टीका । कवित्त । (६०८) हिये में सरूप, सेवा करि अनुराग भरे, ढरे और जीवनि की, जीवान कौं दीजियें । सोई लै प्रकास घर घर में विलास कियो, अति ही हुलास, फल नैनन्ति को लीजिये ।। चातरी अवधि, नेकु मातुरी न होति कि हूँ चहूँ दिसि नाना राग भोग सुख कीजियें। "वल्लभजू" नाम लियो "पृथु" अभिराम रीति,गोकुल मैं धाम जानि सुनि मन गैझियें ।। १८७ ॥(४४२) । वार्तिक तिलक । श्रीवल्लभाचार्यजी की वात्सल्यरसभरी भक्तिरीति अति अनूप थी। हृदय में प्रभुस्वरूप का ध्यान धरे हुए अन्तर तथा वाहर में अति अनु. राग से सेवापूजा करते थे। ध्यान-सेवा-सुख पाकर आप अनुग्रह कर और जीवों की ओर ढरे । यह विचार किया कि यह जगत् जीवनप्रभु की अमृत संजीवनी भक्ति अपने आश्रित जनों को भी देना चाहिये । सो ऐसा ही किया कि वह प्रीति रीति शिष्यवर्ग के घर में प्रकाशित कर प्रभु के विलास में हुलास पूर्ण कर दिया । आपके सदन में तथा सेवकों के घरों में प्रभु विग्रह की झाँकी कर नेत्र सफल होते थे। सेवा आदिक कृत्यों में आप चातुरी की अवधि, और परम धीर थे, किसी प्रकार से किंचित् भी आतुरता आपसे नहीं होती थी। नाना प्रकार के भोगपदार्थ तथा गग-रागिनियों से यश लीला-गान का प्रानन्द लिया करते थे।