पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४१

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२६ २६......... श्रीभक्तमाल सटीक । Henाल444tant+Part+44tM (१) अथ भक्ति के "शान्त" रस में कुछ वचन:--- श्लो. “यो मां पश्यति सर्वत्र मयि सर्व च पश्यति । तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥” (गी०६।३०) "श्रेयोहिज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद् ध्यानं विशिष्यते। ध्यानात् कर्मफलत्यागं त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ॥ १२ ॥" दो • “तुलसी ! यह तनु है तवा, सदा तपत त्रयताप। . शान्त होय जब "शान्ति" पद, पावे रामप्रताप ॥ ३॥ नासिकान करि दृष्टि पुनि, घरै भेष अवधूत । निर्ममता, निर्वाक्यता,यथा शास्त्र अनुसूत ॥ २ ॥ दारुमाहिं पावक लगै,तीन रूप दरसाय । जर, वर, होवे भस्म जव, तवसो "शान्त"कहाय ॥३॥ अतिशीतल, अतिही अमल, सकल कामनाहीन । तुलसी ताहि “अतीत" गनि, “शान्ति" वृत्तिलयलीन ॥४॥ अहङ्कार की अग्नि में, जरत सकल संसार। तुलसी | बांचे सन्त जन, केवल “शान्ति" अधार ॥५॥ ज्ञानाभूषण ध्यान धृति, ध्यानाभूषण त्याग । त्यागाभूपण “शान्ति” पद, तुलसी अमल अदाग ॥ ६ ॥ (२) भक्ति के "दास्य" रस में कुछ वचन:-- श्लो . "दासोहं कौशलेन्द्रस्य रामस्याक्लिष्टकर्मणः। ___ हनुमाछत्रुसैन्यानां निहन्ता मारुतात्मजः ॥" - दो० “सेवक सेव्य भाव" विनु, भव न तरिय उरगारि । भजहु राम पद पंकज, अस सिद्धान्त विचारि॥ चौपाई। सिर भर चलौं धर्म अस मोरा । सब ते “सेवक" धर्म कठोरा ॥ अस अभिमान जाय जनि भोरे। मैं “सेवक" रघुपति “पति” मोरे ॥ "सेवक” हम "स्वामी" सियनाहू । होउ नाथ ! यहि ओर निवाहू ॥ मैं मारुत सुत हनुमत बन्दर । दीनबन्धु रघुपति कर किंकर ॥