पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४१५

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श्रीभक्तमाल सटीक सुकुमार श्रीकृष्ण चन्द्रजी को माता यशोदाजी ने उखल में वाँधा हैं" आप अति व्याकुल हुई । तड़पने लगी, और ही गति हो गई, अर्थात् सच्ची प्रीति से, कोमल अन्तःकरण में प्यारे का इतना दुःख न सहकर प्राण ही श्रीभक्तवत्सलजी महाराज पर न्योछावर कर दिये॥ भाव इसको कहते हैं। श्रीभक्ति महारानीजी की जय ! जय !! जय!!! (२४२) छप्पय ! (६०१) प्रसाद अवज्ञा जानिक, पाणि तज्यो एकै नृपति॥ हौं कहा कहाँ बनाइ बात, सवही जग जानै । करते "दौना" भयो स्याम, सौरभ, मनमानै ॥ 'छपन भोग' तैं पहिल खीचे "करमा” को भा । सिलपिल्ले के कहत कुँअरि पै हरि चलि आवै ॥ भक्तन हित सुत विष दियौ भूपनारि, प्रभु राखि पति.प्रसाद अवज्ञा जानिक पाणि तज्यौ एकै नृपति ॥५०॥(१६४) वात्तिक तिलक । श्रीमहाप्रसाद की महिमा जाननेवाला श्रीपुरुषोत्तमपुरी का ऐसा राजा एक ही (अर्थात् अद्वितीय) हुआ, कि जिसने अपने दाहिने हाथ से श्रीप्रसाद की अवज्ञा जानके उसको कटवा ही डाला। मैं बातें बनाकर क्या कहूँ, सारा संसार जानता है कि उसी कटे हुए हाथ से “दौना" उत्पन्न हुआ है, कि जिसकी सुगन्ध श्रीपुरुषोत्तम प्रभु को बहुत ही भाती है। जगन्नाथनी को छप्पन प्रकार के भोग से भी पहिले श्रीकर्माजी की खिचड़ी ही निवेदन होती है, वही बहुत अच्छी लगती है। १"अवज्ञा" अपमान, बादर का अभाव । २ दौना"=दमना दौना, बना। ३ "स्थाम"भगवत् । ४"सौरभ" सुगध । ५ "खीच" खिचड़ी ।