पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४१४

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भक्तिसुधास्वाद तिलक। साँचे मार डालो है। कोऊ कहैं देस, कोऊ कहत आवेस, "तो पै करौ दशरथ", कियो, भाव पूरो पाखो है ॥ इती एक बाई, कृष्णरूप सों लगाई मति, कथा में न आई, सुत सुनी, कह्यो घाखो है। "बाँधे जसुमति” मुनि और भई गति, करि दई साँची रति, तन तज्यो, मानौ वाखो है ।। १६२॥ (४३७) वार्तिक तिलक । एक समय श्रीनीलाचल धाम में लीला होती थी । इन सत्य प्रेमा- वेशी भक्तजी को लोगों ने लीलाअनुकरण में "श्रीनृसिंह भगवान" का स्वरूप बनाया, आपने श्रावेश में आके, जो हिरण्यकशिपु बना था उसको पेट फाड़ के मार ही डाला । सजन तो इसका कारण श्रीनृसिंहजी का सच्चा आवेश बताते थे, और दुर्जन लोग मार डालने का कारण देष (वैरभाव) कहते थे। अन्ततः यह विचार हुमा कि “इनको श्रीरामलीला में श्रीदशरथजी महाराज का अनुकरण स्वरूप वनाओ और देखो कि आवेश होता है वा नहीं।" ऐसा ही किया गया, आपका भाव तो सच्चा था ही, पूरा पड़ा, अर्थात् आवेश में भाकर श्रीप्राणनाथ रघुनाथ के वनयात्रा में बिछुरते ही, आपने शरीर को तृण सरीखा त्याग ही तो दिया था। सबों ने जाना कि भावावेश पूरा था। (४२) श्रीरतिवन्तीजी। श्रीरतिवन्तीजी नाम की एक बाईजी वात्सल्यनिष्ठा से श्री- कृष्णभगवान में अत्यन्त प्रेम रखती थीं, भगवान को अपना बेटा जानती और चाहती थीं, कथा सुनने का भी नित्य नियम था॥ एक दिवस आप कथा में नहीं गई कि उस दिन ऊखलीवन्धन की कथा थी। बालक जो नित्य साथ जाया करता था, लौट कर उसने जब वही कथा भापको सुनाई, तो यह सुनते ही कि "परम