पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४२५

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श्रीभक्तमाल सटीक । सेवा अनुरागी है। ब्याही ही विमुख घर, पायो लैन वहै वर, खेरी अरवरी कोऊ चित चिन्ता लागी है ॥ करि दई संग, भरी अपने ही रंग, चली मनीहूँ न कोई एक वही जासौं रागी है। बायो ढिग पति, बोलि कियो चाहै रति, वादी और भई गति “मति आवो, लिथा पागी वात्तिक तिलका। अब उस दूसरी बाई राज-कन्या की वार्ता सुनिये । जिसके मन तथा अङ्ग अङ्ग में भक्ति का विचित्र रङ्ग छा गया था, सब विषयों से उसको तीव्र वैराग्य हो गया और उसके मन की वृचि श्रीयुगलसकरि के अनुराग में भलीभाँति लग गई। प्रभुकृपा की जय ।। उसका विवाह एक हरिविमुख के घर हुआ, सो वह वर इस अपनी स्त्री को ले जाने के लिये आया। इससे यह प्रतिही चिन्तित हो भारी घबराहट में पड़ गई। उसके साथ वह बिदा करदी गई, कोई सखी भी संग नहीं, वह अकेली अपने रंग में रंगी हुई चली। एक संग थे तो श्रीप्रभुपाणनाथ ही थे कि जिनके प्रेम में वह निमग्न थी, अपनी डोली ही में श्रीठाकुरजी की पिटारी भी सादर रख ली। मार्ग ही में जब उसके पास जाकर पति ने उसके साथ वार्तालाप तथा प्रीति व्यवहार चाहा, तो वह अत्यन्त घबड़ाके बोली कि तुम "मेरे पास न श्रावो, मैं बड़ी ही व्यथित हूँ॥" (२५२) टीका । कवित्त ! (५९१) "कॉन वह विथा ? ताको कीजिये जतन बेगि, बड़ो उदवेग, नेकु बोलि सुख दीजिय" । "पोलियो जो चाहो, तो मैं चाही हरिभक्ति हिये, बिन हरिभक्ति मेरो अंग जिन बीजिये" ॥ श्रायो रोष भारी अब मन मैं विचारी, "वा पिटारी में जुकछु, सोई लैक न्यारो कीजियें”। करी वही वात, मंसि जलमाँझ डारि दई, नई भई ज्वाला, जियो जात नहीं, खीजिये ॥ २०२॥(१२७) १ "सरीवरदरी" शोक से अत्यन्त बढाई । २ "मुसि" चोरी करके, धुराके ।