पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४२६

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४०७ भक्तिसुधास्वाद तिलक 1 वात्तिक तिलक । पति ने पूछा कि "तुमको व्यथा कौन सी है ? वताओ कि उसका प्रयत्ल शीघ्र ही किया जावे, मुझे बड़ा ही उद्वेग है, तनक अपने मधुर वचन से मुझको सुखी करो ॥" इन्होंने उत्तर दिया कि “यदि बोलना बुलाना चाहो तो श्रीभगवान की भक्ति स्वीकार करो, नहीं तो मेरा अंग स्पर्श मत करो।" उसको क्रोध आ गया । और यह विचार करके कि “इस पिटारी में जो कुछ है वही बाधक है, उसी को चोरी से नदी में डाल देना चाहिये" उस दुष्ट ने वैसा ही किया, अर्थात् पिटारी छिपाके नदी में डाल ही दी। अपनी सेवा-मूर्ति न देखकर इसके हृदय में नई दाह उत्पन्न हुई, क्रोध तथा अतिशय व्यथा से जलने लगी। (२५३) टीका । कवित्त । (५९०) तज्यो जल अन्न, अब चाहत प्रसन्न कियो, होत क्यों प्रतन्न जाको सरवस लिया है। पहुँचे भवन श्राइ, दई सो जताइ छ वात, गात अति छीन देखि, "कहा हठ कियो है ?" ॥ सासु समुझावे, कछु हाथसों खवावे, याकौं बोलिहू न भावै, तब घरकत हियो है। "कहै सोई करें, अव पाँय तेरे पर हम,” बोली “जब वेई आवे तोही जात जियो है" ॥ २०३ ॥ (४२६) वात्तिक तिलक । ___ प्रभु की विरहिनि ने अन्न जल खाना पीना तज दिया | अब उस विमुख राजकुमार ने इसको प्रसन्न करना चाहा, बहुत प्रयत्न किये, परन्तु जिसका सर्वस्व ही उसने हर लिया सो भला कैसे प्रसन्न होती ? जब वे सब घर आ पहुँचे तब पति ने सारी वार्ता कह सुनाई। सासु तथा और स्त्रियाँ अनेक प्रकार से समझा थकी, और उसको झटक गई हुई देखकर पूछने लगी कि "अपने इस हठ का परिणाम तो बता” साप्तु अपने हाथ से उसको खिलाया चाहती थी, पर इसको किसी की कोई बात भली नहीं लगती थी, उसका जी धड़कता था। पाठान्तर "जनाइ".