पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४३

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२८ श्रीभक्तमाल सटीक चौपाई। "ये सब, मुनिवर ! “सखा" हमारे । भरतह ते मोहि अधिक पियारे॥ तुम सब प्रिय मोहि प्राण समाना । मृषा न कहाँ मोर यह वाना॥" "सेवक स्वामि सखा सियपी के । हितनिरुपधि सवविधितुलसीके ॥" "मातु पिता आना अनुसरहीं। अनुज "सखा"सँग भोजनकरहीं।" "बन्धु "सखा" संग लेहिं बुलाई। वन मृगया नित खेलहिं जाई॥" दो० "चपल तुरंगन फेरनी, मृग तकि मारव बान । करि पन लक्षण बेधनी, सव उद्दीपन जान ॥ धरि भुजगलवतलावनी, इक सँग भोजन सैन । अनूभाव ये “सखन" के, सब विधि सुख के ऐन ॥" (५) अथ भक्ति के "शृङ्गार" रस में कुछ बचनः-- श्लो० "यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेषु भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु । सेनाटवीमटास तव्यथतेन किंस्वित् कूर्पादिभिर्ममति धीभवदायुषांनः॥" (श्रीभागवते) "हरिरिति हरिसित जपति सकामम्” इत्यादि । (श्रीजयदेव गीतगोविन्दे) दो० गंगा यमुन सरस्वती, सात सिंधु भरपूर । तुलसीचातकि केमते, बिनु स्वातीसवधूर ॥ चौपाई। माणनाथ ! तुम विनु जग माहीं। मो कहँ सुखद कतहूँ कछु नाहीं॥ जिय विनु देह नदी बिनु बारी । तैसेइ नाथ । पुरुष बिनु नारी ॥ नाथ । सकल सुख साथ तुम्हारे । शरद विमल विधु वदन निहारे ॥ दो० प्राणनाथ करुणायतन, सुन्दर सुखद सुजान । तुम विनु रविकुल कुमुद विधु ।, सुरपुर नरकसमान ॥