पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४३४

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MAH I MinimH -1 -1- 1 .. भक्तिसुधास्वाद तिलक। चले, तब चेरी ने हर्षित होके आगे हो जाके संतों के आने का समाचार कहा, अगवानी के लिये भक्ता बाई अपनी डेवढ़ी पर आके खड़ी हुई, साधुओं के पधारते ही चरणकमलों पर गिर पड़ी, प्रेमाश्र की धारा आँखों से वह चली, प्रेमरस से मति भीज गई। हाथ जोड़ सन्तों से धीरे से कहने लगी कि "मैं तो अपने पिता माता परम हितकारी सन्तों ही को जानती हूँ मैं तो भान हर्ष से फूली अपने शरीर में नहीं घटती हूँ, जी चाहता है कि आप सब पर प्राण न्योछावर कर दूँ॥” (२६१) टीका । कवित्त । (५८२) रीझि गए सन्त, प्रीति देखि अनन्त कह्यो “होइगी जु वही सो प्रतिज्ञा तें जो करी है"। बालक निहारि जानी विष निरंधार दियो. दियो चरनामृत कौं, पान संज्ञा घरी है ॥ देखत, बिमुख जाय पाये तत- काल लिये, किये तब शिष्य, साधुसेवा मति हरी है । ऐसें भूप नारि. पति राखी सब साखी, जन रहँ अभिलाखी जो मैं देखो याही घरी है ।। २११ ॥ (४१८) वात्तिक तिलक इस भक्ता बाई (गनी) की अपार प्रीति देख, साधु लोगों ने बहुत रीमके कहा कि “तुमने अपने मन में जो प्रतिज्ञा की है सोई ठीक होगी" (क्योंकि इसके श्रद्धा विश्वासवश श्रीरामकृपा से वैसे ही पूरे सन्त भी प्राप्त हुए थे,) फिर बालक की ओर देख यह निश्चय जाना कि इसको विष दिया गया है, सन्तों ने कृपा करके भगवत् और संतों का (अपना) चरणामृत उसको पिलाया । अकालमृत्युहरण चरणा- मृत देते ही श्रीयुगलसकार की कृपा से बालक के प्राण पलट आए और चैतन्य हो गया ॥ श्लोक-"अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधिविनाशनम्। विष्णोः पादोदकं पीत्वा शिरसा धारयाम्यहम् ॥"

दो० "धन्य सन्त जहँ जहँ फिर, तहँ तहँ करत निहाल ।

चरणामृत मुख डारिक, फेरि जियायो बाल ॥" १ "निरधार" =निश्चय । २ "पाय लिये"=चरण पड़े ।।