पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

+par.. . ........mmmmastram min ue..414141HNHI141 श्रीभक्तमाल सटीक । रो उठे, हाहाकार मचगया, राजा के सहित सब मूच्छित हो भूमिपर गिरे, सबके हृदयं टूक टूक हुए जाते थे। तब भक्तावाई अकुलाके बोली कि "पुत्र के जी उठने का एक उपाय है जो आप सब कीजिय, क्योंकि मेरे पिता ने कई बेर यही उपाय किया है सो सफल हुआ है मैंने प्रत्यक्ष देखा है।" राजा और सबों ने आँखों में आँसू भरे हुए रो रोके कहा कि "जो तू कहे सोई उपाय करें" इसने कहा कि “सन्तों को शीघ्र हूँद के बुला लाइये।" उन्होंने पूछा कि “सन्त कैसे होते हैं ?" दासी ने सन्तों के बाह्य चिह्न कह सुनाये, और यह भी बताया कि "अमुक ठिकाने भाज बहुत से साधु लोग.श्रा उतरे हैं।" ( २६० ) टीका । कवित्त । ( ५८३ ) चली लै लिवाय चेरी, पोलियो सिखाय दियो "देखिकै धरनि परि पाँय गहि लीजिये।" कीनी वही रीति, गधारा मानी प्रीति सन्त करी यौं प्रतीति “गृह पावन को कीजियै ॥” चले सुखपाय दासी आगे ही जनाई जाय, आय ठाढी पौरि', पाँय गहे, मंति भीजिये । कही हरेवात “मेरे जानौ पितामात मैं तो अंग में नै माति आज, प्राण वारिदीजिय” ॥ २१०॥ (४१६). वात्तिक तिलक। ___ जहाँ सन्त उतरे थे, टहलनी वहाँ राजा को लिवा ले चली, मार्ग में यह भी बता दिया कि सन्तों से बातें करने की रीति ऐसी होती है, तथा यह भी कि"लम्बीदण्डवत् करके चरणारविन्द पकड़ लीजियेगा, क्योंकि यह दासी इसके पिता ही के घर की थी जहाँसंतसेवा होती थी। उन्होंने वैसा ही किया ॥ राजा के नेत्रों में जो पुत्रमरण के दुःख से आँसुओं की धारा बहती 'थी, सो सन्तों ने यही प्रतीति की कि “हमारे ही प्रेम से अश्रु बहते हैं।" राजा ने हाथ जोड़ के सन्तों से प्रार्थना की. कि "अपने पदरज से दास के घर को पवित्र कीजिये” सन्त कृपाकर सुखपूर्वक "पौरि" रनिवास की डेउढी । २ "मतिभीजिय" बुद्धि प्रेम मे पग गई, मति प्रीति रङ्ग से भीजी हई।३"हरे"-धीरे, धीमेस्वर मे । ४ "न माति"तही समाती थी, अंटती नही थी, अमाती नही ॥