पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४३६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

n nar Indsamp -A- MAINumpur-NIRAHumutankrantee-MAINirdo भक्तिसुधास्वाद तिलक । ४१७ अभिप्राय अति अथाह था कि जिस अपनी भक्तिभाव से अपने वर्णधर्म तथा प्राणपर्यन्त अर्पण करके श्रीभगवान को इन्होंने अतिशय प्रसन्न किया, किस प्रकार से सो कहते हैं- श्रीरंगनाथजी के विराजने के लिये श्रीविग्रह के अनुरूप बड़ा भारी मन्दिर बनवाने के लिये द्रव्य मिलने के हेतु बुद्धि में बहुत प्रकार के उपाय विचार किये निदान कपट से जैनधर्मियों के शिष्य हो उनका वेष धारण कर अपने शरीर प्राण पर्यन्त की ममता छोड़के पारस द्रव्य ले मन्दिर बनवाया ॥ (३।४) इसी भाँति, हंसभक्त तथा वैश्यभक्त इन दोनों की भक्ति का भी श्राशय वैसा ही अगाध था, उन्होंने भी हरि की प्रति प्रसन्नता पास की। हंसों के पकड़ने के लिये व्याधा सब सन्त का वेष धरके पाए तिलक कराठी माला के संकोच से वधिकों का कपट जानकर भी हंसों ने अपने प्राणों का लोभ तज अपने तई बंधवा लिया। और सदावती-वैश्यभक्त भागवत वेषधारी लोभी को जाना और देखा कि इसने मेरे पुत्र को मार ही डाला है परन्तु अब शोकयुक्त है, इससे उसको अपनी कन्या विवाह कर श्रादर दिया । इस प्रकार इन चारों भक्तों की भक्ति अथाह है कि जिसमें बड़े बड़े भक्तों का मन डूब जाता है। १.मामू। ३. हंस भक्तों का जोड़ा। २.भानजा। । ४. सदाव्रती साहूकार ॥ (४६।५०)मामू-भानजा। (२६३) टीका । कवित्त । (५८०) श्राशय अगाध दोऊ भक्त मामा-भानजे की, दियो प्रभु, तोष, ताकी वात चितधारिये । घर तें निकसि चले वनकौं विवेकरूप, मूरति अनूप विन. मन्दिर निहारियै ॥ दक्षिण में "रङ्गनाथ" नाम- अभिराम जाको, ताको लै बनावें. धाम, काम सब टारियै । धन के पाठान्तर "पाष" | "धाम"-मन्दिर ॥: