पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४३७

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श्रीभक्तमाल सटीक। जतन फिर भूमि पै, न पायो कहूँ, चहूँ दिशि हेरि, देख्यो, भयो सुख भारियै ।। २१२ ॥ (४१७) वात्तिक तिलक । जो नाते में मामू-भानजा होते थे, उन दोनों महाभक्तों की भक्ति का अभिप्राय अथाह था, जिस तत्सुखात्मक प्रेमाभक्ति से श्रीभग- वत् को भी इन्होंने सन्तुष्ट किया, सो वार्ता सुनके चित्त में रख लीजिये ॥ श्रीरामकृपा से विवेक उत्पन्न हुआ इससे प्रसार संसार से विरक्त हो, घर त्यागके, भजन करने के लिये दोनों ही वन को पधारे, दक्षिण में एक ठिकाने, जहाँ श्रीविभीषणजी श्रीअयोध्याजी से ले जाकर पधरा गए थे, वहाँ "श्रीरंगनाथजी" नामक ठाकुरजी की प्रति अभिराम विशाल मूर्ति विना मन्दिर की देखकर जी में ऐसी अभिलाषा हुई कि "अब और सब कार्य छोड़के इनका मन्दिर बनवाई।" इसलिये बहुतसे द्रव्य के हेतु पृथ्वी पर अनेक देशों में चारों ओर फिरे, पर कहीं न पाया। ढूँढ़ते हूँढ़ते अन्त में एक अटूट द्रव्य देखकर इनके हृदय में बड़ाभारी अानन्द हुया ॥ (१६४) टीका । कवित्त ।(४७९) मंदिर सरावगी कौं, प्रतिमा सों पारस की, पारसन कियो बेद न्यून हूँ बतायो है । “पा, प्रभु सुख, हम नहूँ गये तो कहा ?" धरक न आई । कानलै फुकायो है ॥ ऐसी करी सेवा, जासों हरी मति केवरा ज्यौं, सेवैरा-समाज सबै नीके के रिझायो है। दियो सौपि भार, तब लेबे को विचार करें “ह कौन राह ?" भेद राजनि- पैं पायो हैं ॥ २१३ ॥ (४१६) वार्तिक तिलक । वह अटूट धन क्या है सो कहते हैं, एक नगर में देखा कि १ "भूमिपै"=अनेक स्थानो मे, वहुत जगहो मे । २ "आरसन"=-दरसपरस, दर्शन स्पर्श । ३ "धरक"=शका, घड़क' । ४ "केवरा" केबड़े का फूल । ५ "सेवरा"=सरावगी, बौद्ध, जैनी, जैन ६ "राह" मार्ग, मग, पथ ।। . , ।