पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४३८

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MadarMJAN RNAME भक्तिसुधास्वाद तिलक । सरावगियों का बड़ा भारी मन्दिर है, उसमें पारसनाथ की प्रतिमा पारस की ही है ("पारसनाथ-मूर्ति पारस की"), जिसकी प्रतिमा का दर्शन स्पर्श करना भी वेद ने अति न्यून (बड़ा पाप) बताया है। "गजैरापाडव्यमानोऽपि न गच्छेज्जैनमन्दिरे॥" नितान्त, दोनों भक्त मन में विचारकर आपस में निश्चयकर कहने लगे कि "सुन्दर मन्दिर बने, तथा उसमें विराजके प्रभु सुख पाई, सो भला है, और हम यह न्यून कर्म करने से नरक में जायँगे तो क्या चिन्ता है।" यह मन में दृढ़कर वेधड़क जा कान फुकाके उनका मन्त्र प्रहणकर उनके शिष्य हो, ऐसी सेवा की कि उन सबकी मति इस प्रकार से इर ली कि जैसे केवड़ा पुष्प को सूंघने से मन हर जाता है। __यहाँ तक कि सेवापूजा का सम्पूर्ण भार उन्होंने इन्हीं को सौंप दिया। तब पारस लेने का विचार करने लगे कि "इसको किस मार्ग से हर लें ?” क्योंकि उस मन्दिर में भीतर जाने का दार नहीं रक्खा गया था, केवल हाथ डालके सेवा पूजा कर लेनेमात्र को, और दर्शन कर लेने को अवकाशमार्ग था | तब दोनों ने राजों (थवइयों, मिस्त्रियों) से युक्ति ही युक्ति यह भेद लिया कि मन्दिर के ऊपर से मार्ग है। (२६५) टीका । कवित्त । (४७८) मामा रह्यो भीतर, औं ऊपर सो भानजो हो, कलस भँवरकली हाथसौं फिरायो है । जेवरी लै फॉसि दियो मूरति, सो बैंचि लई, और वार वह श्राप नीकै चढ़ि आयो है ॥ कियो हो जो द्वार तामैं फलि तन फॅसि बैठयो, अतिसुख पाय, तब बोलिकै सुनायो है । "काटिलेवो सीस, ईस भेष की न निंदा करें,” भैरै अंकवारि, मन कीजियो सवायो है ।। २१४॥ (११५) ॐ सेवरा वा सेवड़ा के अनुप्रास के लिये ही केवरा वा केवड़ा लाये है। "भवरकली"=पेच, कल ।।