पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४४०

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+ t p4 Rau inindi+ 4 inentu -Mantriment भक्तिसुधास्वाद तिलक । ४२१ दात्तिक तिलक। जब भानजे के खींचने से मामाजी नहीं निकल सके, तब फिर आपने भानजे से कहा कि “मेरा सीस काट ही लो॥" दो० "हरिमन्दिर के हेतु जो, लागे मोर शरीर । तो यामें कछु सोच नहि, कछुन मानिये पीर ॥" ऐसे प्राण-समर्पण-रूप सच्चे वचन सुन, ऐसी ही सकोरी इच्छा विचार, भानजे ने मामू के कहने के अनुसार शस्त्र से सीस काट ही लिया। भोर पारस तथा वह सीस लेके वहाँ से चम्पत हुआ। इन्होंने सीस को तो कहीं योग्यस्थल में डाल दिया, परन्तु परमभक्त मामू के वियोग से इनको जिया नहीं जाता था, जीने की इच्छा नहीं होती थी, तथापि प्रभु के मन्दिर बनवाने की चाह में मति पग रही थी, इससे विचार किया कि "यदि मैं शरीर को त्याग दूं तो श्रीप्रभुमन्दिर के बनने की जो मेरी समुद्रवत् आशा है उसके पार कैसे पहुँचूंगा, अतः वहाँ ही चलूँ ॥ ऐसा निश्चय कर श्रीकावेरी गंगा के निकट जहाँ श्रीरंगनाथजी की मूर्ति थी, वहाँ भाके देखते क्या हैं कि बड़े विस्तार के मन्दिर की नींव खुदवाने में कोई तत्पर है। उसको देख इनके मन में बड़ामारी शोक इसलिये हुया कि "हमको बहुत दिन लग गए अतिविलम्ब हो गया। इसी कारण से किसी दूसरे ने मन्दिर बनवाना प्रारंभ कर दिया।" समीप जाके देखें तो वे ही, बड़े भाग्यशाली मामाभक्तजी ही,यह नींव खोदवा रहे हैं। दोनों को परस्पर के दर्शन से कोई अभूत ब्रह्मानन्द हुआ और दोनों के नेत्रकमल परम प्रफुल्लित हुए, मिलके (दौड़के) आपस में भुजा भर-भरकर मिले । इन दोनों अनुरागी भक्तों के मिलने का अपूर्व सुख वे ही जानें, जिनको इस अनुराग का अनुभव है। दोनों ने मिलके श्रीरंगनाथजी का सप्तावर्ष-युक्त "रङ्गविमान" ॐ आपकी आत्मनिवेदन भक्ति से, तथा भाजने के सर्वधर्मापूर्ण भक्ति से, संतुष्ट होके सर्व जगत्कर्ता ने मामूभक्त का वैसा ही दूसरा स्वरूप निर्माण करके और बहुत द्रव्य देके यहाँ उपस्थित कर दिया था ॥