पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४४१

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४२२ imater a - . . - - श्रीभक्तमाल सटीक। संज्ञक महामन्दिर बनवाया कि जिसका दर्शन करके अद्यापि सब बड़- भागियों को बड़ा पाश्चर्य और अपूर्व आनन्द होता है । (५१) हंस भक्तों का प्रसंग। (२५७) टीका । कवित्त ( ५७६ ) कोढ़ी भयो राजा, किये जतन अनेक, ऐपै एकहूँ न लागे, कह्यो "हंसनि मँगाइये"। बधिक बुलाय कही "बेगही उपाय करो, जहाँ-तहाँ हँदि अहो इहाँ लगि ल्याइये" ॥"कैसे करि ल्यावै ? वैती रहैं मानसर माँझ,”"ल्यावोगे, छुटोगे तब, जनै चारि जाइये" ॥ देखत ही उडिजात, जाति को पिछानिलेत, “साधुसों न डर", जानि भेष लै बनाइयै ॥२१६॥ (४१३) वात्तिक तिलक । किसी देश का बड़ामारी राजा कोढी हो गया था। वैद्यों ने उसके अनेक प्रकार के यत्न किये, परन्तु कोई सफल नहीं हुआ, तब वैद्यों ने कहा कि "हंस मँगाइये उसकी औषध बनाई जायगी, उससे आप अवश्य अच्छे हो जायँगे।" राजा ने वधिकों को बुलाके आज्ञा दी कि “जाके जहाँ मिलें वहाँ से हंस लाओ, वेगि ही उपाय करों वधिक बोले "महाराज ! ईसों को किस प्रकार से लावें ? वे तो मानसरोवर' ही में रहते हैं ।" सुनकर राजा ने कहा कि "चार जनेजाके किसी भाँति लामा, विना लाए तुम्हारे प्राण नहीं बचने के ॥" हिम (पाला) से बचने योग्य वन्न चर्मादिक पहिन अोदके वे व्याधा मानससर को गए । परन्तु इस पक्षियों के जोड़े, इन सबको देखते ही, व्याधा जानकर, उड़ जाया करते थे। बुद्धिमानों ने बताया कि इस वैष्णव सन्तों से ही नहीं डरते" तब बधिकों ने वैष्णव सन्तों का वेष धारण कर लिया। (२६८) टीका । कवित्त । (५७५) गए जहाँ इंस, संत-बानौं सो प्रशंस देखि जानिके बधाये, राजा पास लेके आये हैं । मानि मत सार, प्रभु वैद को स्वरूप