पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४४२

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४२३ muAMMOHinmendra भक्तिसुधास्वाद तिलक। धारि, पूछिकै बजार, लोग भूप ढिग ल्याये हैं ॥ “काहे को मँगाये पच्छी ? अच्छी हम करें देह, छोड़ि दीजै इन्हैं," कही "नीठकरि पाये हैं।" श्रौपदी पिसाये, अंग अंगनि मलाये, किये नीके, सुख पाये, कहि उनको छुटाये हैं ॥ २३७ ।। ( ४१२) ___ वात्तिक तिलक । वधिक सन्तों का वेष बनाके मानससर में हंसों के निकट गए, हरिभक्त विवेकी हंसों ने जान लिया कि 'ये वधिक हैं' पर परम प्रशंसनीय वैष्णववेष बनाके पाए हैं, इसलिये इस वेष के सम्मानार्थ अपने तई बंधा ही लेना चाहिये। दो० "हंस कहै सुनु हंसिनी । सुनी पुरातन बात। साधुनिकट नहिं जात तो, बाना की पति जात ॥" इससे वे उड़े नहीं । वधिक इनको पकड़कर राजा के पास ले पाए॥ गुणग्राही इंसों ने कपटरूपी नीर छोड़के सन्तवेषरूपी क्षीर उनका ग्रहण किया। श्रीभक्तवत्सल प्रभु ने इंसों का मत भक्तिसारांशयुक्त जाना कि इन्होंने मेरे दासों के वेष का यहाँ तक सम्मान किया कि नीच वधिकों के शरीर में भी केवल बनावटमात्र देखके अपने शरीर और प्राण अर्पण कर दिये, इसी से उसी क्षण अापने वैद्य का स्वरूप धारण कर, उस नगर के हाट में श्रा, लोगों से अपना यह गुण प्रगट किया कि "मैं कुष्ठरोग विशेष करके अच्छा कर देता हूँ!" लोग आपको राजा के पास लाए । वैद्यजी ने राजा से कहा कि "आपने इन हंसों के किसलिये मँगाया है ? इनको छोड़ दीजिये, मैं आपका शरीर अभी अभी अच्छा किये देता हूँ।" राजा ' ने कहा कि “मैंने इन्हें बड़ी कठिनता से पाया है. योही कैसे छोड़ दूं?" वैद्यजी ने प्रोषधि पिसवाके राजा के सब अंगों में लेप कराकर १ "बजार"= बाजार, हाट । २ "नीठकरि" कठिनता से, बडी मुश्किल से। पाटान्तर "यीपधी"।