पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४४४

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भक्तिसुधास्वाद तिलक । वधिक-कपटरूपी नीर छोड़कर सन्तवेषरूपी क्षीर को ग्रहण किया ॥ . प्रभुकृपा से वधिकों को भी यह बान हुआ कि "जिस वेष में खग जाति हंसों ने भी हमारी प्रतीति की, ऐसा वेष हम न छोड़ें।" ऐसा विचार, वधिक दुष्टव्यापार तज वेष धारण किये ही रहे, साधु संग में उनकी मति भी भक्तिरस में भीग गई और उनका परम कल्याण हुआ। (५२) सदाव्रती महाजन । (२७०) टीका । कवित्त । (५७३) महाजन सुनो सदोवती ताको भक्तिपन, मन में विचार, सेवा कीजे चितलायकै । आवत अनेक साधु निपटगाध मति, साविलेत जैसी श्रावै सुबुधि मिलायकै ॥ संत सुखमानि, रहिगयो घरमाँझ, सदा सुत सों सनेह नित खेलै संग जायके । इच्छा भगवान,मुख्य, गौन लोभ जानि, मारि डाखो, धरि गाडि, गृह थायो पवितायकै ॥२१६॥ (४१०) वात्तिक तिलक। हे महजनो! सदाव्रती महाजन की भक्ति की कथा सुनिए। श्रीगुरुउपदेश से इन्होंने मन में विचार किया कि “मैं चित्तलगाके सन्तों की सेवा किया करूँ" सो आप ऐसा ही करने बगे, इससे इनके यहाँ अनेक प्रकारके साधु आया करते थे, ये भक्तजी ऐसे अतिशय अगाधमति- वाले थे, कि जिस प्रकार के सन्त होते वैसी ही सुबुद्धि से उनकी सेवा • साधि लिया करते थे। एक समय एक सामान्य साधुवेषधारी श्राया, और खानपान का सुख पाके आपके घर में रह गया। भक्तजी के एक । छोटा सा बालक था, जिसको इसके साथ स्नेह था, और इसके साथ जाके खेला करता था। एक दिन इस साधु की मति भ्रष्ट हो गई। उसमें मुख्य तो भगवत् १ की इच्छा (भक्तासुयश तथा सन्तमहिमा प्रगट करने के हेतु) जानिये, १ "सदाव्रती महाजन"==बैश्य सेठ कि जिसका व्रत यह था कि सन्त ब्राह्मणों को सदा दिनरात भोजन देना।