पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४५१

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४३२ MA140444441414 श्रीभक्तमाल सटीक । राना के यहाँ से दो लाख रुपये वार्षिक पाते थे, इसके लिये भूमिका पट्टा था, और भक्तजी साधुसेवा बड़ी अभिलाषा से करते थे। एक दिवस राना मृगया (शिकार) खेलने को चला, संग में सब राजभृत्य तथा सामन्त भुवनसिंहजी भी चले, कालवश एक मृगी के पीछे आपने घोड़ा दौड़ाकर उसको खड़ग से दो टुकड़े कर दिये, वह गर्भवती थी, उसको देखके भक्तजी को अति दया और ग्लानि आई, और मन में पछताने लगे कि "हा ! मैंने क्यों मारा ? मुझको सब लोग भगवद्भक्त' कहते हैं, परन्तु मैं कर्म अभक्तों का करता हूँ। इससे मन में संकल्प किया कि मैं अाज से काष्ठ की कृपाण बनवाके धारण किये रहूँगा"। सो आपने वैसा ही किया। (२७७) टीका । कवित्त । (५६६) और एक भाई, ताने देखी तस्वार दारु, सक्यो न सँभार, जाय राना कौं जनाई है । नृप न प्रतीत कर, करें यह सौंह नाना, बाना प्रभु देखि तेज, बात न चलाई है। ऐसे ही वरस एक कहत बितीत भयो, कह्यो “मोहिं मारि डारी, जो मैं बनाई है", करी गोठे, कुंड जाय, पायक प्रसाद, बैठे प्रथम निकासि आप, सवनि दिखाई है ॥ २२५ ॥ (१०४) वात्तिक तिलक । ___ इस वार्ता को चौहानजी के एक (कुलसंबंधी) भाई ने जाना और देखि लिया, और इस मर्म को अपने हृदय में रखन सका, वरंच जाके राना से कह दिया। परन्तु गना प्रतीति नहीं करता था। पिशुन ने नाना शपथ खाकर अाग्रहपूर्वक कहा कि "महाराज । उनका खड्ग वास्तव में काठ का ही है।" तथापि भक्जी का श्रीहरिभक्तवेष और तेज देखकर राना ने आपसे उसकी कुछ चर्चा नहीं की। इसी प्रकार एक वर्ष पर्यन्त उसने कहा ही किया, निदान उसने यह कहा कि “यदि मैं अन्यथा बनाके कहता होऊँ तो मुझको मार डालियगा।" तब एक दिन राना ने, अपने एक . १"गोठ" गोष्ठी, सभा ।।