पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४६५

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श्रीभक्तमाल सटीक । __सरावगी साहूकार और साहूकारिनि के रूप में चलके दोनों, जहाँ श्रीनिष्किञ्चन भक्त अपनी धर्मपत्नी से बातें कर रहे थे, आ पहुँचे । भक्तजी के पूछने पर साहकारजी बोले कि "मार्ग के बड़े २ उत्पात में चलना है, सो यदि कोई हम लोगों को पहुँचा देवे तो उसको रुपये दें।" श्रीनिष्किञ्चनजी ने यह बात स्वीकार कर ली, और साहूकारजी ने कुछ रुपए दिये । इस द्रव्य को भक्तजी ने अपनी धर्मपत्नी को देकर कहा कि "तबतक तुम इससे सन्तों का वालभोग इत्यादि से कुछ समाधान करो, इतने में मैं इन लोगों को पहुँचाने को लिवा जाऊँ ।” साहूकार तथा साहकारिनि के साथ आप चले, वन में जा यह देख हर्षित हुए कि इन हरिविमुखों के पास धन गहने बहुत हैं । ( २९० ) टीका । कवित्त । ( ५५३ ) देखें जो निहार, माला तिलक न सदाचार, "होयँगे भण्डार जो धन इतो लायो है । लीजिये छिनाइ” “यह वारि” कहै "डारि देवों," दियो सब डारि, छला छिगुनी में छायो है । अंगुरी मरोरि, कही "बड़ो तूं कठोर अहो" तोकों कैसे छोड़ोसन्त जे मोको भायो है ।" प्रगट दिखायो रूप सुन्दर अनूप वह, “मेरे भक्त-भूप" लैकै छाती सों लगायो है ॥ २३७॥(३६२) वात्तिक तिलक । आपने देखभाल लिया कि साहूकार के कोई संस्कार वैष्णव सदाचारानुसार अर्थात् माला तिलक कराठी छाप इत्यादि कुछ नहीं है और न भगवत् नाम ही उच्चारण करता है, परन्तु साहूकार साहूकारिनि दोनों के अंगों पर धन गहने लदे हुए हैं इसलिये विचारने लगे कि 'जो इनके भण्डार बहुत धन से भली भाँति भरे हैं, तब तो ये इतना धन साथ लाए हैं, और इतने धन के हाथ लगने से संतों का भाग भण्डारा होगा, सो इसको छीन लेना चाहिये” ऐसा मन में ला उन दोनों से बोले कि “एकही बेर कहने पर सब धन गहने धर दो ।” दोनों ने अपने तई असहाय जान