पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४७८

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४५९ M MARig n e.TAMILADMInteMH04-14upta -tIMJHI भक्तिसुधास्वाद तिलक । ...........४५९ (६५) वारमुखीजी। ( ३०४ ) टीका । कवित्त । ( ५३९) वेश्या को प्रसंग सुनौ, अति रस रंग भयो, भखो घर धन महो ऐ कौन काम को । चले मग जात जन, ठौर स्वच्छ आई मन,छाई भूमि श्रासन, सो लोभ नाही दाम को । निकसी झमकि द्वार, हंस से निहारि सव, कौन भाग जागे भेद नहीं मेरे नाम कौ । मुहरनि पात्र भरि, लै महन्त श्रागे घखो, ढसो दृग नीर, कही “भोग करौ श्याम को" ॥२५०॥ (३७६) वात्तिक तिलक । एक दक्षिणी वेश्याजी की कथा बड़ी ही रंगीली तथा सुनने योग्य है। इसका घर धन से भरा था परन्तु किस काम का ? क्योंकि वेश्या ही तो थी । वेश्याओं के बाहरी चमत्कारों का कहना ही क्या, इसके घर द्वार सब बड़े ही स्वच्छ तथा सुन्दर थे। एक दिन सन्तों का एक वृन्द इधर से जा रहा था, इस जगह की विमलता, वृक्ष की मनोहर छाया, जल का सुभीता इत्यादि देख, साधुलोग यहीं टिक रहे, जहाँ तहाँ भूमि पर शासन जमा दिये, ठाकुर के सिंहासन विराजमान किये। सन्त लोग कुछ धन वा पूजा प्राप्ति के लोभ से यहाँ नहीं ठहरे, किन्तु भगवत-सेवा की सुगमता समझ रम रहे ॥ वारमुखीजी झमझम करती जो बारपर था निकलीं, तो हंसों के दर्शन कर इन्होंने केवल मन की प्रसन्नता ही नहीं पाई, वरंच इनकी मति में भी निर्मलता आई। ये विचारने लगी कि “इन महात्माओं को मेरी जाति का भेद बात नहीं है । अस्तु, मेरे भाग्य का उदय तो निःसन्देह ही हुमा है।" स्वर्णमुद्रों से भरी एक थाली श्रीमहन्तजी के प्रागे ला रक्खी और दीनता तथा प्रेम से आँखों में आँसू भर हाथजोड़ दण्डवत् कर विनय किया कि “इससे भगवत् को भोग लगाइये, इस अधम पतित को कृतार्थ कीजिये ॥ (३०५ ) टीका । कवित्त । ( ५३८ ) प्रछी "तुम कौन ? काके भौन में जनम लियो ?” कियो सुनि