पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४७९

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to H + i t + + - -- PAPA HAM+ HMA d art -4-++ ++ श्रीभक्तमाल सटीक । मौन, महा चिन्ता चित्त धरी है। “खोलिकै निसंक कहो, संका जनि मानो मन,” कहि “वारमुखी" ऐपै पाँय आय परी है ।। “भरो हैं भंडार धन करो अंगीकार अजू। करिये विचार जौ, तो यह मरी हैं। "एक है उपाय हाथ रङ्गनाथन' को अहो कीजिये मुकुट जाम जाति मति हरी है ॥२५१॥ (३७८) वात्तिक तिलक। महन्तजी ने इनसे पूछा कि “तुम कौन हो? और तुम्हारे मा वाप कौन?" यह प्रश्न सुन थे मौन हो रही और चित्त में बड़ी चिन्ता करने लगीं। श्रीमहन्तजी ने पुनः कहा कि “मन में कुछ शंका न लागो, निःशंक होकर खोलके कह दो।" इन्होंने, यह बतलाकर कि “चारमुखी हूँ" श्रीमहन्तजी के पदसरोज पर गिरके, प्रार्थना की कि "श्रीसीताराम- कृपा से भण्डार धन से भरा है कुछ घटी नहीं है, पतितपावन सन्त कृपा करके इस दलतृण को अंगीकार करें, और यदि कुछ बूझ विचार करने लगेंगे तोतो इस पापिनि का मरण ही समझे ।।" साधु महात्माओं ने इनसे प्राज्ञा की कि हम रामकृपा से एक उपाय बताते हैं । इसकी सफलता श्रीरङ्गनाथजी के हाथों में है, और वह यह है कि "इस द्रव्य का अति उत्तम मुकुट बनवाकर श्रीरङ्गभगवान को सप्रेम अर्पण करो।" (३०६) टीका । कवित्त । (५३७) ___ "विप्रहू न छुए जाको, रंगनाथ कैसे लेत ?” “देत हम हाथ तो को रह इह कीजिय" । कियोई बनाय सब घर को लगाय धन, वनि ठनि चली थार मधि धरि लीजिये । अस प्राज्ञा पाइ निसंक गई मन्दिर मैं, फिरी यों ससंक धिक तिया धर्म भीजिये । वाले आप “याको ल्याय आप पहिराय जाय" 'दियो पहिराय' लयो सीस मति रीझिये ॥२५२॥ (३७७) बात्तिक तिलक । वारमुखीजी ने कहा कि "जिसको विप्र ( मनुष्य ) भी छूने तक