पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४९०

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. . . . . . . . . . . . . . . भक्तिसुधास्वाद तिलक । दो० "सब सुख पावे जासुते, सो हरि जू को दास । । कोउ दुख पावै जासुते, सो न दास रैदास ॥" पातिक तिलक । स्वामी श्री १०८ रैदासजी की विमल वाणी, सन्देह की प्रन्थियों (गिरहों) के खोलने में बड़ी ही निपुण, तथा सदाचार वेद और शास्त्र के अविरुद्ध (अनुकूल) है। दूध और जल (सारासार) के विवेक में प्रवीण थे, तथा विवेकी हंसों ( महानुभावों) ने अपने हृदय में आपके वचनों को धारण किया है। श्रीसीतारामकृपा प्रसाद से इसी शरीर में ही परमगति को पाया । राजसिंहासन पर बैठकर ज्ञाति की प्रतीति दिखाई॥ . बड़े बड़े लोगों ने वर्णाश्रम (ब्राह्मण जाति वा संन्यास आश्रम) का घमंड छोड़ छोड़ आपके चरणसरोज की धूरि अपने अपने सीस पर रक्खी है। (३१८) टीका । कवित्त । (५२५) रामानंदजू को शिष्य ब्रह्मचारी रहे एक गहेवृत्ति चूटकी की कहे तासों बानियों। करो अंगीकार सीयो कहि दस बीसवार बरषे प्रवल धार तामें वापि भानियों॥ भोग को लगावे प्रभु ध्यान नहिं आवे अरे कैसे करि ल्यावे जाइ पूछि नीच मानियों । दियो शाप भारी बात सुनी न हमारी घटि कुल में उतारी देह सोई याकों जानियों ॥ २५६ ॥ (३७०) वात्तिक तिलक ।

स्वामी अनन्त श्रीरामानन्दजी का एक शिष्य ब्रह्मचारी था वह उसकी

। यह वृत्ति थी कि झोरी फेर कर चुटकी माँग लाया करता था उसी से स्वामीजी महाराज के यहाँ भगवन्त और सन्त की सेवा होती थी। आपकी कुटी के समीप एक बनिया रहता था, उसने आपसे अपने यहाँ की चुटकी (सीधा) अंगीकार करने के लिए दस बीस वेर प्रार्थना की थी परन्तु श्रीस्वामीजी के निषेध से कभी यह नहीं लेते थे।


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